668/2025
[वर,वधु,बारात,विवाह,डोली]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब में एक
होता है वरणीय जो, उसे पात्र वर मान।
निज वधु के अनूरूप हो, करे नेह प्रतिदान।।
करे बालिका साधना, शिवजी हुए प्रसन्न।
वर माँगो कहने लगे, भक्ति हुई उत्पन्न।।
नारी वधु माता करे, नर का पालन नित्य।
रमा वही है शारदा, वही शक्ति -औचित्य।।
अवगुंठन में देखती, वधु पति की छवि रूप।
सिमटी बैठी लाड़ली, सज्जित सेज अनूप।।
सुना द्वार पर आ गई, उसकी ही बारात।
भोली युवती दौड़कर, गई लगा कर घात।।
बैंड ध्वनन बारात का,सुन दौड़ीं वर नारि।
बहुत उन्हें भावन लगे,करतीं मधुर उचारि।।
मोदक एक विवाह का,सबको रहती चाह।
मीठा या कडुवा लगे,करता फिर भी वाह।।
करता नहीं विवाह जो,नहीं उसे भी शांति।
होता यदि परिवार तो,मिटे हृदय की क्लांति।।
जिस घर से डोली उठी, रहा न अपना गेह।
अतिथि बनी माँ-बाप की,बदल गया वह नेह।।
डोली उठते ही बने, पति गृह से सम्बंध।
इस क्यारी की पौध की,प्रसरित उधर सुगंध।।
एक में सब
वधु-वर सफल विवाह में, जब आई बारात।
पीहर से डोली उठी, हुई प्रेम-बरसात।।
शुभमस्तु !
08.11.2025●9.15प०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें