सोमवार, 27 मई 2019

ग़ज़ल

हादसों के बाद सँभलने की सूझी।
पहेली ये नहीं समझने की अनबूझी।।

अपनी हिफ़ाजत की परवाह नहीं करता,
उलझे हुए धागों के सुलझने की सूझी।

चल रहा है काम तो चलता ही रहेगा,
न किसी को यहाँ बरजने की सूझी।

सबक लेता नहीं तज़ुर्बे से ये इंसां,
बेकार की बातों में उलझने की सूझी।

सिखाने वाले तो हर गली में हैं 'शुभम',
अपने ही पड़ौसी को खुरचने की सूझी।।

💐शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
🌿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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