शुक्रवार, 17 मई 2019

झूठ बोलना :एक कला [व्यंग्य]

   ज्यों -ज्यों आदमी सतयुग से आगे बढ़ा, सतयुग की बुराइयाँ क्रमशः आदमी को प्रिय लगने लगीं। सतयुग से त्रेतायुग , फिर द्वापर युग औऱ अब वर्तमान कलयुग तक आते - आते बुराइयाँ पूरे जोश के साथ फ़ल -फ़ूल रही हैं। लोगों के मन के हिंडोलों में झूल रही हैं। अब ज़्यादा दूर मत जाइए , इस मन को रुचने वाले भोलेभाले , मतवाले , झूठ को ही ले लीजिए।
   द्वापर युग के अंत में होने वाले महाभारत के महायुद्ध में युधिष्ठिर जी के द्वारा नरो वा कुंजरो वा कहने के बाद आज के 'सत्यवादियों' ने उसका क्या - क्या हस्र नहीं कर दिया। साँचाधारी भी बने रहे औऱ 200 फ़ीसद झूठ भी थूक दिया। जिसे चाटुकारों और चमचों ने चटपट चाट लिया। वे सच्चे बच्चे बने रहे। और उधर चापलूस चमचों ने उसमें मक्खन मिस्री मिलाकर उसका रूप ही बदल दिया। झूठ को 200 से 400 फ़ीसद सच्चा सिद्ध करने में रात -दिन एक कर दिया। हज़ारों वीडियो (फ़र्ज़ी ही सही ), ओडियो (नक़ली ही सही) और फ़ोटो ( तकनीकी से निर्मित फ़सली ही सही) बना बना कर मिथ्या तथ्य को सत्य के शिखर पर चढ़ा दिया।
   झूठ बोलना आज के युग की एक कला है। इसके लिए आपको किसी ट्रेनिंग स्कूल में प्रशिक्षण लेने की भी आवश्यकता नहीं है।किसी भी छुटभैये नेताजी के चरण चुम्बन कीजिए , वह खुशी -खुशी आपको अपना चेला बना ही लेगा। क्योंकि चेला बनाना , चेला पालना, साँचे में चेला ढालना उसकी हॉबी है। उसका प्रिय शौक है। सहित्य में जिसे अतिशयोक्ति अलंकार कहा जाता है, वह प्राचीन राजाओं और आज के चमचों , नेताओं का प्रिय शौक है। यों कहिए कि वे ही इसके जन्मदाता हैं। किसी बात को सैकड़ों हज़ारों गुना बढ़ा चढ़ाकर कहने की कला में निष्णात ये झूठ- स्नातक की उपाधि धारक हैं। जो जितना बड़ा झूठ बोल सकता है , वह आज उतना ही बड़ा राजनेता बन जाता है। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या, हाथ कंगन को आरसी क्या? हिटलर अपने समय का सबसे बड़ा झूठा तानाशाह हुआ है। तो क्या आप यह समझते हैं कि आज उससे बड़े - बड़े झूठे विद्यमान नहीं हैं? अवश्य हैं। जनता छोटे - छोटे झूठ बोलने और सुनने की पहले से ही अभ्यस्त होती है। इसलिए नेताओं और उन सरीखे लोगों के बड़े झूठ उन्हें शीघ्र हज़म हो जाते हैं। क्योंकि उनका विश्वास है कि इतना बड़ा नेता भला झूठ बोल सकता है ? वह सच ही कहता होगा! बस उसकी इस कमजोर नब्ज़ को थामकर नेताजी उसकी गर्दन तक ऐंठ डालें तो भी यही कहेगा कि नेताजी गुलगुला रहे हैं। जब उसका गला दबा दिया जाता है , तब तो वह कुछ बोलने और करने के योग्य ही नहीं रह जाता। इसलिए नेताजी के सर्वांश असत्य को सत्य मान कर चमचा , चापलूस ,अंधभक्त उसका अनुगामी ही नहीं पक्का प्रचारक और विस्तारक बन जाता है। हिटलर ने अपनी पुस्तक 'मीन काम्फ' में लिखा है कि 'छोटे झूठ की तुलना में बड़े झूठ से जनसमुदाय को आसानी से शिकार बनाया जा सकता है। बड़े झूठ में विश्वसनीयता का जोर होता है।क्योंकि जन समुदाय अपनी भावनाओं की प्रकृति के कारण आसानी से प्रभावित हो जाता है। स्वाभाविक भोलेपन के कारण लोग बड़े झूठ शिकार बनने के लिए ख़ुद ही तैयार बैठे होते हैं।'
   यों तो झूठे महारथियों की गाथा बड़ी लम्बी है। जो जितना बड़ा झूठा होता है, उसे उतना ही भारी आन मान औऱ शान से पेश किया जाता है। यों कहिए कि ये युग ही झूठों का ,झूठों के द्वारा बनाया , झूठों द्वारा संचालित, झूठों द्वारा पालित, औऱ झूठों के हित साधन में साधित शोधित है। सत्यवादियों के लिए इस युग में कोई स्थान नहीं है। रहना है तो पड़े रहिए एक कोने में। अब इस युग में झूठों की ही चाँदी, और सच्चों की अच्छी बरबादी है।झूठों के साथ हाँ में हाँ मिलाते रहिए तो आपको भी खीर पूड़ी की महक से महकायित किया जाता रहेगा। अन्यथा बड़े आदमी , सच्चे आदमी बने पड़े रहिए अपने घरों में बंद नज़रबन्दों की मानिंद।

कौन  पूछने वाला है,
जब झूठों का बोलबाला है,
सच्चों की जुबां पर ताला है,
झूठों को ' गरम मसाला' है,
सच न कोई कहने वाला है,
न कोई सच बोलने वाला है,
यहाँ दलाल ही पलते हैं,
झूठ के दलाल मिलते हैं,
वकील भी सभी झूठ के रखवाले,
सच्चों के तो पड़ ही रहे हैं
जीने के लाले!
झूठ की ही जय है,
विजय है,
अब नहीं जीवित
महा भारत का संजय है,
टीवी है जो झूठों का
रखवाला है,
झूठों ने ही उसे
अपने साँचे में ढाला है,
 वही तो कहेगा
जो उसमें झूठा कहेगा,
कहलवाया जाएगा,
क्योंकि  पैसे से खरीदी है
अस्मिता टीवी की,
जनता को झूठ
दिखा ने की  यह भी
आधुनिक विधि भी।
अँधेरे की जय बोली
जाती है,
उजाले की किरण
अब शरमाती है।

शुभमस्तु!
✍लेखक ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...