सोमवार, 13 मई 2019

भैंस -भोज

- चौपाई -
नई    सभ्यता   नवयुगताई।
भोजन बफर प्रणाली आई।।

लड़ामनी - से सज्जित डोंगा।
जिनमें भरे विविध बहु भोगा।

मटर  - पनीर    रोटि   तंदूरी।
मिस्सी  रोटी   पीली   भूरी।।

छोले  गरम     भटूरे     पूरी।
प्याज सलाद टमाटर मूरी।।

अरहर दाल  मखानी  भी है।
देख - देख ललचाता जी है।।

चीला पापड़  साँभर  डोसा।
चाउमीन संग गरम समोसा।।

रूमाली      रोटी    मनभाई।
हल्की पतली फुली  फुलाई।।

शीतल पेय  चाट फ़ल वाली।
आइसक्रीम की छटा निराली।

- दोहा -
छेना     काला   जाम   की ,
अपनी      नई         बहार।
केसर   वाले      दूध   सँग,
रबड़ी     का       आहार।।

रसमलाई   का   स्वाद जो,
लेता    है    इक       बार।
स्वाद   सराहे    जीभ   ये,
लौटे              बारम्बार।।

- चौपाई -
आओ   अपनी प्लेट उठाओ।
रख सलाद चम्मच सँग लाओ

खड़े -खड़े अपने कर परसो।
खाओ खड़े -खड़े मन हर्षो।।

'मैं पहले'   'मैं पहले'   पाऊँ।
रोटी  गरम चुपड़ घी  लाऊँ।।

धक्कामुक्की  भीड़भाड़ है।
बेटा   बापू    से अगाड़  है।।

प्लेट    उठाई   उसने   ऊपर।
गिरी वसन सब्जी कुछ भूपर।

सॉरी  बोल  बढ़ गया  आगे।
टूटे  शांति   नियम के धागे।।

नियम न कोई भंग व्यवस्था।
कोई न  देखे  वृद्ध अवस्था।।

भैसों  से  भी  बुरे  हाल   हैं।
सही बफैलो की मिसाल है।।

- दोहा-
 तन  महके   महके  वसन ,
युवती        बाला      नारि।
कूद  पड़ीं   ज्यों    जंग  में,
कर   में   प्लेट     सँभारि।।

चाट    पकौड़ी     चाटतीं,
खट्टे               चाऊमीन ।
पानी  - पूरी        गटकतीं,
कैसा        सुंदर      सीन।।

दोना   प्लेटें      हाथ   ले,
खड़े      प्रतीक्षा     लीन।
सभी   भिखारी   से लगे,
वे    करोड़पति     दीन।।

चीला    दोसा    के  लिए,
'पहले   मैं '    की    जंग।
बफे   दावतें    देख   लो,
खाउ   खाउ   रस   भंग।।

सेल्फी   ले - ले  खा रहीं ,
करके      टेढ़े         होठ।
कभी बतख की चोंच सी,
सहेलियों    की     गोठ।।

- चौपाई -
 आइसक्रीम  महकती   जाए।
 चाटे  ब्याहुलि अति शरमाए।

घूँघट सिर  का बहुत सताए।
वधू   नवोढ़ा   कैसे   खाए??

कुर्सी मेज सजा कुछ बैठीं।
शची   इंद्र पत्नी - सी ऐंठी।।

कुल्हड़  उठा  दूध के लाते।
केसरिया खुशबू महकाते।।

छेना  रबड़ी  भी क्यों छोड़ें!
रसगुल्ले से क्यों मुख मोड़ें।।

कोई   व्यंजन  छूट न पाए।
घर जा लोटा लेकर  धाए।।

जिसको कहते हैं सब पूरी।
उसकी इच्छा  रही अधूरी।।

रोटी    मिले    नहीं   तंदूरी।
बेमन   वही   उठाता   पूरी।।

- दोहा -
 भरना    ही   है   उदर  तो,
सबका    ले    लो    स्वाद।
खायेगा      कोई       कहाँ ,
हो        जाए       बरबाद।।

ठूँस- ठूँस  कर  भर लिया,
नहीं    उदर      में     ठौर।
पानी   अब     कैसे  पिएं,
भैंस -भोज    का    दौर।।

उधर  वहाँ दस पाँच जन,
बैठे     भर -  भर   प्लेट।
छूट न   जाए   स्वाद  से,
व्यंजन    करते       वेट।।

खाया  कुछ  छोड़ा बहुत,
सभी   गांव    के    लोग।
पेट भरा   पर  मन  नहीं,
बैठे      खाते        भोग।।

पंगत     में       बैठालना,
पिछड़ापन     है   आज।
भैंस-भोज  की  सभ्यता ,
मानव     में     सरताज।।

उनसे    अधिक   बनाएंगे,
व्यंजन      नाती -  ब्याह।।
तुलना में  क्या   कम पड़ें,
मन    में   बड़ा    उछाह।।

प्रतियोगी   युग -  सभ्यता ,
प्रतियोगी       हैं      भोज।
दावत - घर  में   देख   लो,
'शुभम' सत्य ये   रोज़।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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