शुक्रवार, 24 मई 2019

कवि के प्राण [अतुकान्तिका ]

 भावों का वृहद 
व्यापक आकाश असीम,
विचरण करते हुए जिसमें
हम पखेरू प्रणीत,
शब्दों की दैवी शक्ति से,
खग की  मानस -भक्ति से उड़ते, 
उड़ने में प्रवीण,
वाणी की वीणा मधुर
करती मनभावन गुंजार,
ज्यों पावस की फुहार,
शब्द और वाणी का
सुसंस्कृत आचार।

छंदों में बन्धों में
लय ताल का प्रवाह,
ज्यों समतल में
सरिता -जल  का बहाव,
तटबंधों की मर्यादा
न कम न कहीं ज़्यादा,
अनवरत अहर्निश 
कल्पना के सशक्त
 परों से नित,
उड़ना उड़ना और बस उड़ना
हृदय का हृदय से  जुड़ना,
कभी उतरना 
कभी चढ़ना
बदलते हुए कभी दिशा 
कभी मुड़ना,
 धरती क्या !
आकाश में भी 
नई लीक की रचना ।

यही है कविता
जहाँ नहीं है सविता,
फिर भी 
एक द्युलोक का विचरण
धर्म है नित्य कवि का! 
फैलाता हुआ शब्द - प्रकाश,
भावों का दिव्य सुहास,
जागृत करता विशद विश्वास,
करता जगत का कल्याण,
सत्यं शिवम सुंदरम से 
'शुभम' त्राण,
कविता है 
कवि के प्राण,
आत्मा का जीव का,
समाज और देश में नवविहान।
नहीं है जिसमें 
कहीं  तृण भर 
गंदगी सियासत का निशान।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...