शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

दुनिया:एक नाट्यशाला [ व्यंग्य ]


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 ✍ लेखक© 🏛️ डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम' 
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 ये दुनिया एक बृहत नाट्यशाला है।जिसके हर स्थान पर अनेक मंच सजे हुए हैं। हम सभी उन नाटकों में अभिनय करने वाले किरदार हैं। नट , नटी , अभिनेता , अभिनेत्रियां, गायक ,वादक ,लेखक ,संगीतकार, नृत्य निर्देशक , नर्तक ,नर्तकियाँ औऱ न जाने क्या क्या ? पर उन सभी नाटकों का निर्देशक , सूत्रधार , पर्दा उठाने और गिराने वाला एक ही है। हमें औऱ आपको तो बस नाटक के पात्र बनकर नाटक खेलना भर है।
               सभी जानते हैं कि नाटक का मतलब है ,जो दिखाया जा रहा है , वस्त्विकता वह नहीं है। वास्त्विकता कुछ औऱ ही है।हम सबने बदले हुए वस्त्र पहने हुए हैं। हमारा असली रूप ही कुछ और है । कपड़ों के अंदर हम कुछ और ही हैं। बाहर से कोई राजा दिख रहा है ,कोई रानी।कोई नौकर, कोई नौकरानी। कोई महाजन, कोई कर्जदार । कोई सेठ ,कोई दुकानदार। कोई चोर, कोई शाह।कोई जज ,कोई वकील स्याह। कोई ग्राहक , कोई संग्राहक। कोई आघातक ,कोई आहत। नित नए नाटक , कहीं माटी कहीं हाटक। पर सबकी असलियत कुछ और ही है। चूँकि सब कुछ नाटक में चल रहा है। यही विश्वास हमें निरन्तर छल रहा है।
                आभासी , अवास्तविक दुनिया को सच मान बैठे हैं। अपने -अपने अहं में सब इतने ऐंठे हैं कि सामने वाले को पहचानते ही नहीं। पते की बात तो यह है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी सपने के राजा को राजा मान बैठे हैं। जानते हैं कि कर्मों का फल सबको मिलता है। यहाँ कोई अंधेरगर्दी नहीं है। बुरे का बुरा औऱ अच्छे का अच्छा। उस सूत्रधार की नज़र में न कोई हिन्दू है न मुसलमान है। न गीता है न कुरान है। वहाँ तो बस कर्म ही पहचान है।सबसे बड़ा धर्म मानव धर्म है। पर यहाँ जाति , धर्म के ढकोसलों के नाटक , ऊँच नीच के नाटक , सवर्ण अवर्ण के नाटक मंचित करके आदमी अपने झूठे अहं की तुष्टि में मगन है। एकांकी , रूपक , भाण, प्रहसन , दुखांत , सुखांत और न जाने कितने- कितने नाटकों की पीठिका तैयार हो रही है। कुछ नाटक चल रहे हैं। किसी का पर्दा उठ रहा है, तो किसी का गिर रहा है। किसी का मध्यांतर है।
                      पर्दे के पीछे से पार्श्व संगीत , पार्श्व संवाद देने वाले मजे में हैं। नायक नायिका औऱ खलनायक ,खलनायिकाएं अपना पाठ पूरा कर रहे हैं। पर्दे के पीछे बैठे हुए ही तो आज के सबसे महान किरदार हैं।इशारे ,मौन संकेत, आंतरिक मंसा और आकाओं की चाहत से मंचन चल रहे हैं।आदमी ही आदमी को छल रहे हैं।दल रहे हैं।उधर निरीह और असमर्थ हाथ मल रहे हैं।आज के काज कल पर टल रहे हैं। बनते हैं कम , अधिकांश के सूरज ढल रहे हैं।
               सियासत एक ऐसा विशाल मंच है।जहाँ हर सियासती सरपंच है।दुनिया में आग लगे , पर आग की लपट सियासती को छू भी नहीं पाती। उसके पास सारे कवच हैं। कोरोना की भाषा में बात करें तो उनके पास एक से बढ़कर पी. पी. ई. किट हैं। जो उनकी पूरी बॉडी में नख से शिख तक फिट हैं।इसीलिए वे आज के युग में सर्वाधिक हिट हैं। न किसी कोरोना को छूने की हिम्मत है न किसी के हँसने रोने की ही खिट -खिट है।
              जब नाटक शुरू होता है , तो कोई पात्र नहीं जानता।अपनी करनी के आगे किसी की नहीं मानता। बस वह अपनी ही सवर्त्र तानता! भले वह कुछ भी नहीं जानता । वह यह भी नहीं मानता कि सूत्रधार की सूक्ष्म धागे के बल पर नाच रहा है।जब गिरता है मंच पर पर्दा , तब उसे लगता है अभी तो मैं बहुत कुछ करता। पर उसे नहीं पता कि सूत्रधार कब डोरी खींच देगा और नाटक का पटाक्षेप कर देगा! जब तक उसकी आँखें खुलती हैं , तब तक देर हो चुकी होती है। लेकिन अब क्या? कुछ भी नहीं हो सकता। नाटक की समाप्ति पर एक संदेश भी मिलता है।जिसमें कुछ प्रायश्चित ,कुछ संतुष्टियाँ, कुछ अफ़सोस कुछ शाबाशियाँ मिली रहती हैं।ऐसा करते तो वैसा होता। वैसा करते तो कैसा होता? जैसी व्यर्थ की माथापच्ची के सिवाय कुछ भी शेष नहीं रहता। नाटक को नाटक समझें , इसीमें समझदारी है।कर्म को महान समझें यही ईमानदारी है। बाकी तो एक प्रायश्चितपूर्ण नाटक है , अभिनय है।जिसका इसी जगत में विलय है। 
 💐 शुभमस्तु ! 
10.07.2020 ◆11.50 पूर्वाह्न।

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