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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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वक़्त के साथ मैं भी बदलता रहा।
दर्द का एक सागर मचलता रहा।।
रौशनी ज़हन में तू ही भरती रही,
मैं अँधेरे पथों में भी चलता रहा।
आग ऐसी लगन की लगी रूह में,
जैसे सूरज सुबह का निकलता रहा।
टूट कर न शजर से गिरें डालियाँ,
रुख सबा का जहाँ में बदलता रहा।
कितनी मंज़िल मिलीं पर्वतों पर चढ़ा,
राह पर गिर उठा किन्तु चलता रहा।
खार भी खूब पैरों में मेरे चुभे,
मैं भी बचता -बचाता उछलता रहा।
जो पसीना बहाया 'शुभम'ने बहुत,
राम का नाम ले मैं सँभलता रहा।
💐 शुभमस्तु !
12.07.2020 ◆4.00 अपराह्न।
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