सोमवार, 20 जुलाई 2020

आज का पावस [ दोहा ]

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍ शब्दकार©
🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
सावन-महीना चल रहा, प्यासी धरती गोद।
जीव जंतु अकुला रहे,वंचित सकल प्रमोद।।

उगे  नहीं  अंकुर हरे,हरी  न उगती   घास।
कृषक शून्य में ताकता, लगी मेघ से आस।।

सावन  सूखा  जा  रहा, पशु पंछी  बेहाल।
बादल  घुमड़ाते  रहें, लगता पूर्ण   अकाल।।

कविजन कविता कर रहे,बरसाते  जलधार।
एक बूँद थल पर नहीं,नयन थके लख हार।।

झूठी  कविता क्यों  करें, झूठा मेघ  बखान।
देख प्रकृति के रूप को,चित्रण अनुसंधान।।

उमस   बढ़ी तन तप रहा,बहे पसीना  धार।
पत्ता तक हिलता नहीं,करते जन मनुहार।।

कवि-शब्दों की बाढ़ में,डूबे शहर मकान।
मोद मनाने में लगे, भरे खेत खलिहान।।

पावस तपसी बन गया,तपता दिन औ' रात।
सूख रहे पौधे हरे, 'शुभम' न संध्या  प्रात।।

पुरवाई   के  ताप   से,  बहे पसीना  धार।
प्रकृति वह्नि की धारती,पावस थकी अपार।

मौन  धरे  दादुर  पड़े, कोने में चुपचाप।
टर्र -टर्र  होती  नहीं,  झेल  रहे हैं  शाप।।

मोबाइल  के  मंच  पर, बही कल्पना धार।
झूठी रचना व्यर्थ है,सुमन नहीं वह खार।।

💐 शुभमस्तु !

20.07.2020◆10.00 पूर्वाह्न।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...