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✍शब्दकार ©
🌹 डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम'
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[1]
रूपराशि की तू खान,
काटे चाँद हू के कान,
तेरी ऐसी आन - बान,
माने या न मानिए।
तेरो तू ही उपमान,
बात मेरी कही मान,
नारी जाति में प्रमान,
साँची कही जानिए।।
होठ रचे लाल पान,
गाल तिल कौ निशान,
नैन ललचौहीं बान,
चुनरी सँभालिए।
करौ रूप कौ गुमान,
आछौ नहीं तव मान,
'शुभम' को पहचान,
हठ मती ठानिए।।
-2-
टेढ़ी - मेढ़ी है कमर,
शीश झूमते भ्रमर,
पांव घूमते अधर ,
मन मोर नाचता ।
रससिक्त हैं नयन,
अनुरक्त से बयन,
शुभ किया है चयन,
शाकुंतल बाँचता।।
जंघ कदली समान,
नैन चलती कमान,
सुघड़ता है अजान,
ये तेरी महानता।
घनानंद की सुजान,
तेरे संग मेरे प्रान,
आओ एक ही वितान,
तुझे पहचानता।।
-3-
आया सावन का माह ,
उठी उर में उछाह,
तेरी मेरी एक चाह,
पास मेरे आइए।
शून्य बरसाए मेह,
नहीं भावे अब गेह,
स्वेद भींग रही देह,
मत दूर जाइए।।
तेरा मेरा साथ संग,
उठे अंग में तरंग,
मार डालेगा अनंग,
नहीं तरसाइए।
मेरा है ही और कौन,
कैसे रखा तुम मौन,
काट खा रहा है भौन,
बाँहों में समाइए।।
-4-
चलो चलते हैं बाग,
देह -लगी गुप्त आग,
प्रिय जाग! जाग!! जाग!!!
बुरा मेरा हाल है।
बोल बोल मुख खोल ,
जिया रहा मम डोल,
मेरी वेदना न तोल,
देह भी निढाल है।।
झूला अमुआ की डाल,
दोनों झूलें खुशहाल ,
पींग पाँव की उछाल ,
अधरा प्रवाल हैं।
दो हैं देह एक प्रान,
नीर - क्षीर के समान,
तुम तीर मैं कमान,
अबूझा सवाल है।।
-5-
तेरे नैन की कटारी,
मेरे हिय में उतारी,
चैन हुआ छार छारी,
वशीभूत हो गए।
छुआ तेरा जो बदन,
लगी देह में अगन,
भूले आप ही सदन,
रोम कंट बो गए।।
एक घृत एक आग,
तू है शीश का सुहाग,
एक रंग एक फ़ाग,
सराबोर हो गए।
बिना राग क्या विराग,
सजन से ही सुहाग ,
वही सखी का सुभाग,
रंग में डुबो गए।।
💐 शुभमस्तु !
15.07.2020 ◆5.30 अप.
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