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✍ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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नीके थे जो बीते सावन।
अब के रीते नहीं सुहावन।।
झर - झर झरते बादल काले।
विरहिन को तरसाने वाले।।
कितने थे वे सावन पावन।
नीके थे जो बीते सावन।।
सिवई बनतीं सौंधी घर - घर।
काँवरिया गाते थे हर - हर।।
लगता था कितना मनभावन।
नीके थे जो बीते सावन।।
नागपंचमी जब भी आती।
नाग बना माँ दूध पिलाती।।
सिवई - बूरा चढ़ा पुजावन।
नीके थे जो बीते सावन।।
बहनें लेकर राखी आतीं।
बाँध हाथ में पैसे पातीं।।
बाँट भुजरिया हरी सुहावन।
नीके थे जो बीते सावन।।
रुई सूत की राखी लाते।
बच्चों बहनों से बँधवाते।।
सभी पड़ौसी और पड़ौसन।
नीके थे जो बीते सावन।।
पाख- पाख भर बादल छाते।
सूरत नहीं भानु दिखलाते।।
झरतीं बूँदें निशिदिन छनछन।
नीके थे जो बीते सावन।।
रिंगतीं पथ में वीरबहूटी।
लाल गिजाई वन में बूटी।।
एक टाँग पर बगुला ध्यावन।
नीके थे जो बीते सावन।।
छतें टपकती टप टप टप-टप।
कच्ची गिरें दिवारें धपधप।।
टिपर -टिपर करते थे छाजन।
नीके थे जो बीते सावन।।
कोयल तब लगती मतवाली।
कानों में वर्षा रसवाली।।
बाग- बगीचे झूमे वन-वन।
नीके थे जो बीते सावन।।
💐 शुभमस्तु !
15.07.2020 ◆11.50 पूर्वाह्न।
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