◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍ शब्दकार©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग- अंग सुलगाइ दयौ री।।
जब से भए सजन परदेशी।
सखियाँ बतरावें कछु ऐसी।
कासे पिय कौ नेह लग्यौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।
चलत झकोरे बरसें बुँदियाँ।
कसि-कसि जावै मोरीअँगिया
छलकि-छलकि रस घाय कियौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग-अंग सुलगाय दयौ री।।
दिवस न चैन नींद नहिं रैना।
कासे बतराऊँ दुःख भैना।।
विष वियोग हररोज़ नयौ री
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।
सखियाँ झूलति गिरत फुहारें।
गावति कजरी गीत मल्हारें।।
बीजु न प्रीतम एकु बयौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।
प्यास बुझी धरती की सारी।
हरी- हरी सिग खेती -बारी।।
बालम आए न घरू छयौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।
चिठिया नाहिं सँदेशौ आयौ।
कहूँ बलम मेरौ भरमायौ।।
अचरजु मेरे मनहिं भयौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।
सूधी आँखि फड़कती मेरी।
सपने बुरे सताएँ अँधेरी।
'शुभम'न मानत बलम कह्यौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।
💐 शुभमस्तु !
28.07.2020◆ 7.45 अप.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें