शनिवार, 11 जुलाई 2020

झूला [ दोहा ]

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✍शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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झूला  भूला आदमी, मात्र शेष इतिहास।
सावन के आनंद की,मिलती नहीं सुवास।।

झूले के  वे  दिन गए, झूले राधेश्याम।
गोपी झोंटा दे रहीं,छोड़ धाम के काम।।

झर झर  वर्षा  हो रही, आया सावन मास।
झूलों पर किल्लोलरत,सखीं करें परिहास।।

ऊँचे  लंबे  पेंग  भर,होड़ लगी है बाग।
अमुआ पर झूले पड़े,नहीं जेठ की आग।।

श्याम  झुलावें  राधिका, झोंटा दे  दे  खूब।
लंबे  पाँव  पसारतीं ,  छुए  न धरती दूब।।

झूला ऊपर  जब चढ़े,चूनर करे किलोल।
सर सर सर पीछे उड़े,घड़ियाँ हैं अनमोल।।

इमली जामुन आम पर,झूलों की भरमार।
चुहल करें सखियाँ सभी, झोंटा दें भरतार।।

पटली   चंदन  की  बनी, झूलें राधेश्याम।
ललिता झोंटा दे रहीं,खिलखिल हँसती वाम

जिनके पति परदेश में,झूला लगे न नीक।
ठोड़ी कर पर टेक के, घर ही लगता ठीक।।

सावन  झूला  झूलने, पीहर जातीं नार।
भैया को पाती लिखें,पति से कर मनुहार।।

चंदन  की  पटली  नहीं, खोई रेशम डोर।
जादू की डिबिया मिली,बनी नारि की चोर।।

💐 शुभमस्तु !

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