शनिवार, 26 नवंबर 2022

ध्वन्यता में धन्यता 🔔 [ व्यंग्य ]

 497/2022

 

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✍️ व्यंग्यकार ©

🔊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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          साधु,संतों और विरक्तों की बात को छोड़ दें तो हम सभी आम और खास जनों को शांति पसंद नहीं है।साधु- सन्तों को यदि शांति पसंद नहीं होती तो वे भला घर छोड़कर, परिवार से नाता तोड़कर और परमात्मा से आत्मा को जोड़कर समाज के पास रहकर भी दूर क्यों जाते ?  जंगलों, पर्वतों औऱ एकांत में जाकर शांति की तलाश क्यों करते? वह तो केवल हम और आप ही हैं ,जिन्हें शांति से परहेज़ है।हम सभी आम और खास को शोर - शराबा, धमा -चौकड़ी, धूम -धड़ाका,बच्चों और नर नारियों की चिल्ल - पों , हों- हों, झों - झों, टेंटें , मैं -मैं थोड़ा नहीं ; बहुत ज्यादा ही पसंद है। इतनी अधिक पसंद है कि हमारा कोई भी पर्व, त्यौहार, शादी - विवाह,बरात,  बिना बैंड - बाजों, कानफोड़ू डीजे वादन,अतिशबाजी, पटाखों,गाजे - बाजे आदि के बिना हो ही नहीं सकता।सर्वथा असंभव ही है।

       हमारे आदर्श मात्र दूसरों में अपना रॉब दिखाने औऱ प्रदर्शन भर के लिए हैं। उनका प्रयोगात्मक रूप हमें कदापि स्वीकार्य नहीं है। हाथी के दाँत खाने के और ,औऱ दिखाने के और।हमें दिखाए जाने वाले दाँतों पर अधिक आस्था है।यही कारण है कि शांति के स्थान कहे जाने वाले हमारे तीर्थ स्थल ,मंदिर,चर्च, मस्जिद आदि भी ध्वनि विस्तारक यंत्रों से मुक्त नहीं हैं। ध्वनि - प्रदूषण के गीत गानों के बिना दूल्हा- दुल्हन की  सात भँवरियाँ भी नहीं पड़ सकतीं।डीजे तो मुहूर्त से भी ज्यादा अनिवार्य रस्म के रूप में उभरा है। रात भर आतिशबाजी, रात भर नहीं तो बारात चढ़ाए जाते समय बम,पटाखे, धूल धड़ाका भला कौन रोक पाया है? प्रदूषण की ऐसी- तैसी ,अरे शादी  -विवाह की खुशी ज्यादा जरूरी है या प्रदूषण को देखें? होता है तो होता रहे! जब दीवाली पर नहीं रुके तो अब क्यों रुकें? वे चलेंगे और चल के रहेंगे! क्या शादी विवाह भी कोई रोज- रोज होते हैं भला? अब चाहे पर्यावरण प्रदूषित हो या किसी के कान फूटें,हमें क्या! हम तो वही करेंगे जो हमें अच्छा लगेगा। देश दुनिया को देखें या अपने बाल- बच्चों की खुशी को पलीता लगा दें?  दो लोग एक फुट की दूरी से बात भी न कर सकें ऐसा शोर होना निहायत जरूरी है।हजारों लाखों रुपये में जो आग लगाई है ,क्या इसीलिए  लगाई है कि चहल -पहल न हो ?

       आम और खास आदमी को श्मशानी शांति से विशेष प्यार है।कभी- कभी तो बुजुर्गों की आत्मा को परमात्मा के पास भेजने के लिए बैंड बाजों की  नसैनी लगाई जाती है। श्मशान में भी वह शांत कहाँ रहने वाले हैं? वहाँ भी अन्य विषयक वार्ता के साथ खैनी, चुनही,  कपूरी, मैनपुरी अनिवार्य है।

       शोर  - शराबा और हो हुल्लड़ से हमारे स्तर  का मूल्यांकन होता है। जितना अधिक शांति विहीनता उतना ही उनका स्तर भी बड़ा मूल्यांकित किया जाता है।कोई किसी से कमतर नहीं दिखाना चाहता ,इसलिए ये सब भी अनिवार्य हो ही जाता है।भले ही कर्ज लेकर कंगाल हो जाए ,लेकिन किसी से कम हुल्लड़ न हो। हुल्लड़ बाजी मानवीय सभ्यता का अनिवार्य अंग है।वह हर खास-ओ-आम  की आंतरिक अशांति को दबाने के लिए प्रयुक्त की जानी वाली अस्थाई जुगाड़ है।

            जुगाड़ के नाम से एक बात यह भी निकल कर आती है कि हम भारतीय जुगाड़बाजी के लिए प्रख्यात हैं। जहाँ सही विधि विधान भी असफ़ल हो जाएं ,वहाँ जुगाड़ ही कारगर सिद्ध होती है।यहाँ पर कुछ लोग तो केवल जुगाड़बाजी की ही रोटी खाते हैं।अब वह जुगाड़ भौतिक भी हो सकती है और अभौतिक भी। जैसे कोर्ट कचहरी में अनेक कार्य केवल जुगाड़ के बलबूते पर सिद्ध कर लिए जाते हैं ,औऱ थोड़े  नहीं ; बहुत अच्छी तरह से निबटा लिए भी जाते हैं।जुगाड़बाजी के लिए कोई डिग्री लेना या मानद उपाधि प्राप्त करना भी आवश्यक नहीं है। बस जुगाड़- अक्ल होना जरूरी है। जो किसी में और कहीं भी पाई जा सकती है ;जंगल में स्वतः उगे हुए जिमीकंद की तरह।

              आदमी बाजा ,ढोल, नगाड़ा,हारमोनियम आदि की तरह गाल बजाकर भी क्या- क्या  नहीं कर लेता? कवियों को जैसे श्रोताओं की तालियों से प्यार है , वैसे ही तृतीय लिंगियों को भी अपनी ताली से दुलार है। मतलब बस ध्वनि होने से है। मैंने पहले ही कहा है कि चाहे आम हो या ख़ास हो , जोर -  जोर की ध्वनि सबको पसंद है। इसलिए प्रकृति ने भी आदमी की भावना को समझकर आगे -पीछे और ऊपर- नीचे से ध्वनि प्रसारण की सुविधा प्रदान कर दी है। बोलना, गाना, रोना, (कभी- कभी हँसना भी) , चिल्लाना, चीखना, पुकारना  : सबमें एक विशेष लय भर दी है;जो उसके जैविक कार्य का अनिवार्य अंग बन गई है। ध्वनि की कोई न कोई गतिविधि होती रहने में ही उसे संतोष है।इसीलिए उसके सुख और कभी- कभी दुःख के कार्यों में ध्वन्यता में ही उसकी समग्र धन्यता है।अन्यथा उसे लगता है कि वह नागरिक नहीं , सर्वाधिक वन्यता है। वह कोई विरक्त संत थोड़े है कि मौन रहकर कानों को बंद करके प्राणायाम योग में तल्लीन हो जाए! मानव को 'शांतिप्रिय' के ख़िताब से संम्मानित किया जाता है। परंतु वह भीतर से नितांत विपरीत ही है। बिना आवाज किए जिसकी दुल्हन भी विदा नहीं होती।(नई सभ्यता में  चुप- चुप विदा होने लगी है। अब मानक जो बदल  गए हैं।खुशी में रुदन कैसा ? औऱ क्यों? जब विवाह ड्रामा नहीं ,तो रुदन क्यों ड्रामा बने?)वरना उसके बिना आदमी को आनंद नहीं आता। यहाँ शांति के लिए थोड़े नआए हैं? शांति तो वहीं मिलती है ,जहाँ से यहाँ भेजा गया है। इसलिए वहीं जाकर लेने में ही भलाई है, यहाँ तो बस जो करना है ,कर लें। झूठे ही प्रसन्न भी हो लें।तभी तो आत्मा के परमात्मा में मिल जाने पर नीचे वाले शांति की कामना करते हैं: 'ॐ शांति' कहते हैं।

🪴शुभमस्तु!

26.11.2022◆5.00 पतनम मार्तण्डस्य।


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