शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

बहती रहती रात -दिन 🏞️ [ कुण्डलिया ]

 482/2022


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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

गिरती गिरि-गृह त्याग कर,मैदानों  के बीच।

पथरीले  पथ  पार कर,नाली, नाले,  कीच।।

नाली, नाले, कीच, लगन बढ़ते  ही   जाना।

प्रिय सागर-संयोग,दान का प्रण  अपनाना।।

'शुभम्'बनी फिर मेघ,गगन मंडल में फिरती।

बनती जल की वृष्टि,धरा पर सरिता गिरती।


                         -2-

बहती रहती रात-दिन, कहते नदिया  लोग।

देना  ही   उद्देश्य   है,  एकनिष्ठ    हठयोग।।

एकनिष्ठ हठयोग, जनक गिरि का घर छोड़ा।

सिंधु मिलन  की साध,भले हो पथ में रोड़ा।।

'शुभम्'  एक  ही चाल,निरंतर बाधा  सहती।

देकर  ही  संतुष्ट, गान कलरव कर   बहती।।


                         -3-

अपगा है फिर भी चले, सरिता, तटिनी नाम।

लहरी,तरिणी भी कहें,कल्लोलिनी सुधाम।।

कल्लोलिनी  सुधाम, सींचती जीव  चराचर।

कूलंकषा   महान,  पेड़- पौधे रचना  कर।।

'शुभम्' बुझती प्यास,बनी पावन तिरपथगा।

यमुना ,सरयू ख्यात,सिंधु , कावेरी  अपगा।।


                         -4-

लेना    यदि  आनंद   हो , देना सीखें   मीत।

कलरव में नदिया कहे,गा मत अपने गीत।।

गा मत अपने गीत, प्रशंसा मत कर अपनी।

करना हो यदि त्याग,प्रेम की माला जपनी।।

'शुभम्' नदी की सीख,मात्र देना   ही   देना।

करना  पर-उपकार, नहीं बदले  में   लेना।।


                         -5-

नदिया-नदिया क्यों कहे,देती कण-कण बूँद।

गिरि से सागर तक चली,लीं निज आँखें मूँद।

लीं निज आँखें मूँद, लिया जिसने जो चाहा।

मानव,पशु,खग,पेड़,सभी ले करते   आहा।।

'शुभम्, नहाते जीव,तृप्त गौ,बछड़ा,बछिया।

सींचें फसलें बाग,  सदा उपकारी   नदिया।।

🪴 शुभमस्तु !


18.11.2022◆2.00

पतनम मार्तण्डस्य।

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