459/2022
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✍️ शब्दकार ©
🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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बहे दुग्ध सम सुरसरि धारा।
पावनतम रमणीय किनारा।।
पर्वत की सित धार सुहानी।
प्रकृति बहाती निर्मल पानी।।
तट पर सघन वृक्ष सरसाए।
देवदारु बहु चीड़ सुहाए।।
दीर्घ सुलम्बित तरुवर काया।
अंतर में नव घन - सा छाया।।
निशि-दिन शिला नहातीं भारी।
लगे न ठंडक या बीमारी।।
दिवस-रात कल-कल कर बहती।
सदा शीत के झटके सहती।।
यों ही बहता मानव - जीवन।
किंतु दिखाता कितने ठनगन।।
आघातों से डर जाता है।
बाधाओं से भय खाता है।।
नर को भी सागर से मिलना।
चट्टानों में चढ़ना - गिरना।।
अपनी धुन में सरिता बहती।
नहीं किसी से पीड़ा कहती।।
'शुभम्' लक्ष्य उसको मिलता है।
बिना रुके जो नित चलता है।।
नदिया नाम दिया नित करती।
देती सीख स्वतंत्र विचरती।।
🪴शुभमस्तु !
01.11.2022◆12.45
पतनम मार्तण्डस्य।
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