494/2022
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✍️ शब्दकार ©
🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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अपने - अपने गरेबान में,
नर-नारी सब झाँकें।
नंगा होकर खड़ा आदमी,
अति आधुनिक बताए।
स्नानागार और के झाँके,
मौन खड़ा मुस्काए।।
विकट फँसी है नारी।
कहते नर पर भारी।।
गली - गली में दुःशासन हैं,
ग्रीवा उचका ताकें।
जोड़ - जोड़ श्रद्धा के टुकड़े,
श्रद्धा लौट न पाती।
पूछें उसके मात - पिता से,
फटती जिनकी छाती।।
हुआ हवस का खेला।
वह जाने जो झेला।।
भूत आधुनिकता का हावी,
सुन-सुन श्रुतियाँ थाकें।
सबके जीवन में चलती हैं,
यौवन - गंध- हवाएँ।
चलती हैं जब तेज सुनामी,
टूटें मन - वल्गाएँ।।
अंधे दौड़ें घोड़े।
सहज रास को तोड़े।।
पत्थर गिरे अक्ल पर जब से,
छाने फिरते खाकें।
कलयुग में क्या-क्या होना है,
दिखता नित्य नमूना।
नौ महीने जो रखे कोख में,
लगता उसको चूना।।
द्रवित हृदय रोता है।
जब ऐसा होता है।।
'शुभम्' नारि- नर के चरित्र का,
दर्शन कर दृग पाकें।
🪴शुभमस्तु !
23.11.2022◆8.45 पतनम मार्तण्डस्य।
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