496/2022
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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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नारी अब तुम
केवल 'श्रद्धा' नहीं हो!
क्योंकि अब 'श्रद्धा'
श्रद्धांजलि की पात्रा है,
उसकी बची-खुची
जो मात्रा है;
वह दुनिया के तंत्र की
रवयात्रा है।
ये समाज!
यौवन का विलास!
वासना का खेल!
चरित्र का नया झोल!
सभी उत्तरदाई हैं,
गली- गली में फिर रहे,
दुःशासन आतताई हैं,
जिन्होंने द्रौपदियों की
बाँट दी मिठाई है,
अखबारों ,पत्रकारों,
टीवी,सोशल मीडिया ने
आग ही लगाई है।
दूसरे की लुगाई
जग - भौजाई बनाई,
समाज ही करता रहा
नारी की जग- हँसाई,
कभी चटपटी
कभी मिठाई - सी सजाई,
ठिठुरती शीत में
गरमाहट देती रजाई,
कभी पैर की जूती
बना पहनी पहनाई,
बच्चे बनाने की मशीन
कह बुलाई,
वाह रे!
हिंदू! मुस्लिम!! ईसाई!!!
हर ओर से
नारी पर ही प्रहार,
पुरुष की वासना की
अंधी शिकार,
हे पुरुष तुझे धिक्कार,
कभी बना दिया
गया जीवंत उपहार,
तो कभी टुकड़े- टुकड़े कर
दिया मार,
थैले और फ्रिज़ में बंद
चला हथियार।
श्रद्धा, समर्पण और त्याग
सब बेमानी हो गए हैं,
मानवता के उसूल 'शुभम्'
कहीं खो गए हैं,
'अपना उल्लू सीधा कर'
यही मानक हो गए हैं,
मनु औऱ श्रद्धा
कहीं जा सो गए हैं।
🪴शुभमस्तु!
24.11.2022◆4.15
पतनम मार्तण्डस्य।
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