रविवार, 27 नवंबर 2022

आँगन में धूप [ नवगीत ]

 498/2022


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✍️ शब्दकार ©

🌅 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मुँडेर से झाँक रही,

आँगन में धूप।


पूस का महीना है,

ठिठुराया शीत,

सूरज दा'  हारे हैं,

कुहरे की जीत,

कंबल  में  लेटे हैं,

गाँवों के कूप।


उछल रही खरहे की,

झबरी - सी पूँछ,

तनी लाल  नथुने  पे,

गोरी द्वय  मूँछ,

बैठे हैं  शावक  दो,

उछले बिन चूप।


आलू की  फसलों पर,

चादर है सेत,

कदमों  की   ठंडी  है,

मटमैली रेत,

खिली है अपराजिता,

सुंदर स्वरूप।


गेहूँ  जौ   चकिया  से,

करते  कुछ बात,

अभी तो नव सुबह थी,

आई झट रात,

सोते  हैं  सूरज  दा',

ओढ़े हैं सूप।


🪴 शुभमस्तु!


26.11.2022◆8.45 

पतनम मार्तण्डस्य।

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