479/2022
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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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धूप अगहन - पूस की ये,
झिझकती - सी आ रही है।
कोहरे की ओढ़ चादर,
लाल मुख चमका रहा है,
जाग गोलाकार सूरज,
ओस में मानो नहा है,
कुकड़कूँ की बाँग आई,
कान में पड़ती सुनाई,
फ़ाख्ता बैठी विटप में,
गीत प्रभु के गा रही है।
ओढ़ कर बैठी रजाई,
दादियाँ नानी सिकुड़कर,
पूछतीं बच्चो बताओ,
धूप कब आए उतर कर,
माँ बिलोती दधि - मथानी,
शाटिका धर देह धानी,
गूँजती ध्वनि छाछ के सँग,
लवनि ऊपर ला रही है।
फावड़ा ले हाथ अपने,
कृषक सिंचन में मगन है,
जौ, मटर , गेहूँ लहरते,
काम की उर में लगन है,
कुशल घरनी ले कलेवा,
कर रही पतिदेव- सेवा,
मेंड़ पर बैठी हुई है,
प्रेम से खिलवा रही है।
ओट में बैठे करब की,
टूंगते हैं मूँगफलियाँ,
युवा, बूढ़े , प्रौढ़ बालक,
गा रहे कुछ गाँव-गलियाँ,
हैं रँभातीं भैंस गायें,
माँगतीं चारा ख़िलाएँ,
'शुभम्' अम्मा नाद में कुछ,
हरित चारा ला रही है।
🪴शुभमस्तु !
17.11.2022◆3.00पतनम मार्तण्डस्य।
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