गुरुवार, 3 नवंबर 2022

बँगले ऊँघ रहे हैं! 🏘️ [ गीत ]

 463/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🏘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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झोपड़ियों  में  आग  लगी  है,

बँगले ऊँघ रहे हैं!


तन ढँकने  को  वसन  नहीं है,

 नहीं  उदर  में  रोटी।

धूप   झाँकती   झोपड़ियों  में,

खेल रही  नौ गोटी।।

भीतर  सुलगे   ज्वाला।

जुबाँ - जुबाँ पर भाला।।

करनी   नहीं    देखते  अपनी,

 बीड़ी धूंक  रहे हैं।


हाथी   जाते     अपनी   राहें,

पीछे  कूकर  भूँकें।

अवसर  मिलते   ही टाँगों में,

क्योंकर वे सब चूकें।।

उर  में   समता   चाहें।

उठा  - उठा कर  बाँहें।।

गज - शुंडी  में  घुसने के हित,

चींटे  सूँघ  रहे  हैं।


कारण  बिना   बैर  बँगले  से,

फूस न देखा अपना।

इतराती    झोंपड़ - पट्टी   ये,

महलों का है सपना।।

मनहूसी मुख छाई।

टूटे लोग - लुगाई।।

अंबर   से  हो  धन  की वर्षा,

सरपट घूम रहे हैं।


ककड़ी  का रसाल हो जाना,

सदा असम्भव भारी।

मासी   तो   मासी   ही  होगी,

नहीं जननि महतारी।।

विधि-विधान स्वीकारें।

अपने को  क्यों  मारें!!

कर्मलेख  मिटता  न  मिटाए,

पत्रा बूझ रहे हैं।


🪴शुभमस्तु !


03.11.2022◆1.45

 पतनम मार्तण्डस्य।


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