गुरुवार, 3 नवंबर 2022

काव्य -अंगना आँगन में 🏕️ [ गीत ]

 462/2022


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नारी  की  छाया  बन  घूमें,

काव्य-अंगना-आँगन में।


कभी अधर  का चुम्बन भाए,

कभी झनकती पग पायल।

कभी   मोहते   गाल  गुलाबी,

उर को करते अति घायल।।

बिंदी   लाल   सुहाती।

केशराशि बल खाती।।

कानों के  झुमके  नक नथनी,

रस बरसाते फ़ागुन में।


दस   रस  के   स्थाई  दस ही,

संचारी     तैंतीस   बिसार।

बस रति का  शृंगार  दीखता,

नहीं वीर शम विस्मय धार।।

क्षीणकाय कटि, छाती।

तन में    आग  लगाती।।

विरह   और   संयोग दीखता,

चाँद रूप का आनन में।


रीतिकाल   ने  छिलके  फेंके,

उनमें ही रस पाते हैं।

नीतिकाल दिखता न उन्हें तो,

गीत देह के गाते हैं।।

देश भक्ति क्यों भाए।

रमणी  पर  उतराए।।

परिरम्भण मर्दन ही सब कुछ,

शृंगारी रस -प्लावन में।


कवयित्री  को   साजन  प्रेमी,

विरह 'शुभम्' संयोग दिखे।

उसकी सीमा है  बस तन की,

देश भक्ति क्यों आज लिखे??

सीमा पर रिपु भारी।

बने नित्य   बीमारी।।

वीरों   का     उत्साह   बढ़ाएँ,

भरें जोश हर दामन में।


🪴 शुभमस्तु !

03.11.2022◆11.00 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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