499/2022
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✍️ शब्दकार ©
🌿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मकई की रोटी है,
रहिला का साग।
शरमाता झाँके रवि,
गाँवों की ओट,
ओस लदी मोती - सी,
स्वेटर नहीं कोट,
भैंसों पर कम्बल हैं,
जागे हैं भाग।
बोरे पर बैठी माँ,
कड़री ली काट,
सिकुड़ी- सी दादी जी,
बिछवाई खाट,
ताप रहे अगियाना,
दादा जी आग।
रई से मथानी में,
बिलो रही छाछ,
मौन धरे ठाड़े हैं,
अमुआ के गाछ,
सोई है आली क्यों,
भोर हुआ जाग।
फूस-सा है छल रहा,
शीत भरा पूस,
सिमटी तरु गौरैया,
दुबके बिल मूस,
बोल रहा मुँडेर पे,
काँव - काँव काग।
रहिला = चना
🪴 शुभमस्तु!
27.11.2022◆7.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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