बुधवार, 4 अक्तूबर 2023

जितने साँचे उतनी मूर्तियाँ!● [ व्यंग्य ]

 436/2023

 

 ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● 

● © व्यंग्यकार

 ● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

●●●●●●●●●●●●●●●●●●● 

शांत सरोवर के तट पर खड़े आदिम मानव ने जब स्थिर जल के तल पर अपनी प्रतिछाया देखी तो आश्चर्यान्वित होकर चिल्लाया : ओह ! यहाँ भी मैं ! और वहाँ जल में भी मैं ही !!यह भी मैं ! और वह भी मैं !! मैं एक नहीं दो - दो! ऐसा क्यों ? ऐसा कैसे ? क्या ऐसा भी सम्भव है?तभी वह थोड़ा आगे बढ़ा।अचानक उसके पाँव से एक प्रस्तर- खण्ड टकराया बड़ा।जो सीधे सरोवर- जल में जा पड़ा।पर यह क्या ? एक के अनेक प्रतिबिम्ब बनने लगे। ध्यान में तुरन्त यह विचार घुमड़ाया।मैं एक नहीं,बहुत बहुत रूप में आया।थी तो मात्र वह मानव देह रूप की छाया ! किन्तु मानव-कल्पना ने एक नया विचार उपजाया!

 यदि परम् पिता किंवा परम् प्रकृति ने यह चमत्कार नहीं दिखलाया होता कि प्रत्येक मूर्ति की रचना में अलग -अलग साँचा न बनाया होता ।तो अब तक कितने राम,कृष्ण, बुद्ध, महावीर,कंस ,रावण, महिषासुर बन गए होते।जो अपने - अपने युग में अयोध्या,मथुरा,कपिलवस्तु, वैशाली,मथुरा,लंका,स्वर्ग भू लोक में अपने बहु रूपों में घूमते - फिरते   देखे जाते ।किंतु प्रकृति ने बड़ी कुशलतापूर्वक साँचे बनाए ,प्रयोग किए और तोड़कर फेंक दिए। पुनः वैसा ही न बनाने की शर्त पर तोड़ दिए। चूर्ण -विचूर्ण कर दिए।खाक में भूमिसात कर दिए। वैसा रूप आकार,चेहरा,शरीर ,रंग आदि पुनर्निर्मित किया ही नहीं गया।अब ये उसकी इच्छा। अरे भाई ! मनुष्य की जीवंत मूर्ति का सृजन कोई टेसू - झाँझी का निर्माण नहीं है ,जो जमीन से खोदकर साँचे में भरी और एक समान ही अनेक मूर्तियाँ बना डालीं।ये कार्बन कॉपी ,कट पेस्ट का काम आदमी ही कर सकता है।परमात्मा का प्रत्येक सृजन मौलिक ही होता है। इसलिए रानी अवन्तीबाई, लक्ष्मीबाई,  राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, सम्राट अशोक, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद,स्वामी ब्रह्मानंद जैसी महान विभूतियाँ हर युग में नहीं आतीं।एक बार जाकर पुनः प्रत्यावर्तन भी नहीं कर पातीं।

  आज यदि हम संसार की करोड़ों विविध जल, थल और नभचर जन्तुओं और वनस्पतियों की चर्चा न करें और मात्र मानव आकार प्रकार की ही चर्चा करें तो यही पाते हैं कि इस धरती पर प्रकृति ने एक जैसी दो नर या नारियों की रचना नहीं की है। 

  यह बात कही और सुनी जाती अवश्य है कि ईश्वर की इस सृष्टि में 08 व्यक्ति एक ही रंग , रूप और आकार के मिलते हैं।किन्तु अनिवार्य रूप से ऐसा है ;कहा नहीं जा सकता ,क्योंकि इसका कोई सबल प्रमाण उपलब्ध नहीं होता।यद्यपि आज के विज्ञान ने क्लोन का निर्माण करके यह तथ्य भी सम्भव कर दिखाया है कि एक ही शक्लो-सूरत के कितने भी प्रतिरूप बनाए जा सकते हैं।किंतु प्रकृति की व्यवस्था कुछ इस प्रकार की है कि शक्लो -सूरत की बात तो बहुत दूर है ,किन्हीं दो नर -नारियों के हाथों की लकीरें, मस्तक की रेखाएँ , कद काठी , चाल -ढाल ,रंग -रूप ,मुखोच्चारण,बोलने की शैली आदि सब कुछ एक दूसरे से भिन्न है।कहीं भी किसी भी स्तर पर एक रूपता नहीं है।एक ही नाम के हजारों लाखों लोग मिल सकते हैं ;किन्तु उनके रंग- रूप, आकार - प्रकार भिन्न -भिन्न ही होंगे।यह विचित्रता निश्चय ही सराहनीय है।चूँकि आदमी एक नकलची प्राणी है।इसलिए वह एक ही साँचे की अनेक मूर्तियां गढ़ सकता है।परंतु परमात्मा के पास अनेक विकल्प हैं।अनेक मिट्टियाँ हैं ,जिनसे वह नया आकार निर्मित कर सकने की क्षमता से युक्त रहता है। 

  काश यदि ऐसा होता कि मान लीजिए मेरा या आपका कोई भी दूसरा या दो चार प्रतिरूप बनाए गए होते तो किसी हाट- बाज़ार, मेला ,सड़क, गली ,मोहल्ले ,तहसील, जिला ,प्रदेश ,देश या विदेश में मिल जाता तो यही कहते 'अरे ! क्या तुम मैं हूँ ? मैं और तुम या तुम सभी एक जैसे कैसे ? सब कुछ मिलता है। नाम अलग है तो क्या ?मेरा नाम राम सिंह है ,तुम्हारा श्याम सिंह है ,उनका महावीर सिंह है ! तो क्या ?हैं तो हम सब एक ही।मुझमें तुम !तुममें मैं !!अथवा उनमें में मैं !!! सब कुछ समरूप ,सम आकार, सम वर्ण , सम भाषा, सम शैली । ' है न विचित्र बात!परंतु ऐसा कुछ भी नहीं है।प्रकृति ने जो किया ,वही सही है।क्यों व्यर्थ में बनाएं हम अपने दिमाग का दही है।जो मैं हूँ ,वह विश्व में कहीं नहीं है। 

  प्रत्येक मूर्ति किंवा प्रत्येक व्यक्ति अपने में एक मौलिक सृजन है उस सृष्टिकर्ता का। सबके अलग - अलग गुण -दोष , अलग - अलग विशेषताएँ।कोई भी किसी मौलिक विशेषता से शून्य नहीं है।भले ही वह कोई गुंडा मबाली हो,किसी भी ताले की ताली हो। भेजे से पागल भी खाली नहीं है।जैसे एक बंद पड़ी हुई घड़ी भी चौबीस घंटे में दो बार सही समय बताती है। वैसे ही ये माटी का पुतला मानव भी कभी न कभी सही भी होता है।

  कोई नहीं जानता कि हमारी - तुम्हारी यह मूर्ति कब तोड़ डाली जाए! साँचा तो उस परमात्मा ने उसी समय तोड़कर चूर्ण - विचूर्ण कर डाला था ,जब हमें तुम्हें बनाकर गर्भाशय के अवा में पकने और आकार प्रकार का पूर्ण रूप पाने के लिए दबा दिया था।वह नित्य नए-नए साँचे में नई-नई मूर्तियाँ गढ़ रहा है। स्थायित्व विहीन इस मृत्तिका - मूर्ति का हस्र क्या होगा ,कौन नहीं जानता? ●

 शुभमस्तु !

 04.10.2023 ◆ 12.30प०मा०


 ●●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...