गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

ग़ज़ल ●

 467/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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यों     फ़जीहत    करा  रहीं टाँगें।

राह   चलते     सता     रहीं टाँगें।।


चला   घिसटता   जमीं  पै जब   मैं,

तब   की   यादें    दिला   रहीं टाँगें।


घिसते - घिसते    छिल   गए घुटने,

वो     बचपना      बता   रहीं टाँगें।


थकीं ,हारीं  न    पिराईं    थी कभी,

जरा-ज़रा- सा     जला  रहीं  टाँगें।


दिन   जवानी  के  भी  अजब होते,

जलता    लूका    छुला    रहीं टाँगें।


दुपहरिया   भी   ढल   गई कब   से,

साँझ    वेला      बुला     रहीं  टाँगें।


सीढ़ियाँ   चढ़ी जाती  हैं  नहीं इनसे,

झुकी  खाल   भी   झुला  रहीं टाँगें।


कौन जाने कि   कब   अस्त हो  सूरज,

'शुभम्' यही  तो   समझा   रहीं   टाँगें।


● शुभमस्तु !


26.10.2023◆1.15प०मा०

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