433/2023
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●©शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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क्या से क्या होता क्षण भीतर।
छिड़ा हुआ है भी रण भीतर।।
कहाँ नहीं है प्रभु की सत्ता,
विद्यमान है कण - कण भीतर।।
हाथी ,हय या व्हेल हमारी,
नन्हीं चींटी या तृण भीतर।।
हार - जीत का खेल निरंतर,
चलता रहता है पण भीतर।।
वैसे भी क्या कम दुख तेरे,
पाल रहा है क्यों व्रण भीतर।।
बाहर क्या चमकाता मुखड़ा,
झाँक जीव को दर्पण - भीतर।।
अंतःकरण 'शुभम्' कर पावन,
होता अमृत - प्रसवण भीतर।।
●शुभमस्तु !
02.102023◆4.00आ०मा०
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