464/2023
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● © शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मन का रावण
क्यों न मारता
पुतले फूँक रहा है ।
वर्ष-वर्ष हर
पुतले फूँके
फिर भी जीवित रावण।
बाहर के ये
कागज जलते
भरा देह का कण -कण।।
एक बार ही
पूर्ण अहं को
तूने नहीं दहा है।
त्रेतायुग से
अब तक तन में
रावण पाले काले।
झाँका तूने
गरेबान कब?
जहाँ फफोले पाले।।
तुझसे तो वह
दसकंधर था
बेहतर, नग्न नहा है।
छुआ नहीं था
तन सीता का
त्रेता के रावण ने।
सबल खींच कर
नहीं ले गया
सत्त्व चरित का हरने।।
हाँ बदले की
आग जली थी
तू कब चूक रहा है।
तुम लोगों में
चरित कहाँ वह
मरी अस्मिता सारी।
घर -घर रावण
दर -दर लंका
पानी सारा खारी।।
हया न बाकी
चर्म -चक्षु में
चीखे करे हहा है।
तुलना कर ले
अपनी उससे
तू पासंग नहीं है।
कहाँ ज्ञान का
एक निदर्शन
रावण वही जहीं है।।
'शुभम्' जलाते
रावण मिलकर
रावण मनुज महा है।
●शुभमस्तु!
24.10.2023◆2.15आ०मा०
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