शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2023

हे जग के घटकार ● [ दोहा गीतिका ]

 439/2023

 

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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साँचा-धारी   एक  तू, तू    ही  साँचाकार।

मूर्ति मृदा से नित्य ही,रचता लाख -हजार।।


एक   मूर्ति   का एक ही ,  साँचा तेरा  नेक,

मूर्ति  गढ़े  जितनी  यहाँ,बदले तू हर  बार।


मूर्ति बनाईं आज तक,पृथक सभी का रूप,

रंग,ढंग,गति   भिन्न हैं,  हे जग के   घटकार।


नाशवान सब मूर्तियाँ,जब तक उनमें  प्राण,

दिखलातीं गतिशीलता,मृत्यु अंत   ही  सार।


कहीं विश्व में एक -से,मुखड़े बने   न     गात,

नर -नारी सब भिन्न हैं,ढोते तन    का   भार।


नहीं मोह घटकार को,करे न प्रतिमा  -  नेह,

मान गए   हैं  अंततः,विधना से   सब   हार।


नर -नारी के बीच में,देकर माया   -    जाल,

संतति या परिवार का,घेर लिया   हर   द्वार।


सन्यासी   कोई   बने,रँग कर भगवा   देह,

मन भगवा   होता नहीं,कैसे हो   भव   पार।


कर्ता के दर - घर सभी,एक सदृश सब जीव,

कर्मों की फसलें फलें,सत कर्मों   से   प्यार।


आवा -  गर्भाशय   बढ़ा,बाहर गया     समूल,

इतराने   ऐसे      लगा,  अपनी     पैदावार।


'शुभम्' कर्म के खेत में,कृषि कर बने किसान,

दाना फल अच्छा उगा,मत टपका मुख -लार।


 ●शुभमस्तु !


05.10.2023◆12.15प०मा०

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