442/2023
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
●© लेखक
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
यह प्रसंग उस समय का है ,जब मेरी अवस्था चौदह -पंद्रह वर्ष की रही होगी।मेरे आगरा के समीप स्थित गाँव में मेरे अपने ही बगीचे में निर्मित बँगले में साधु - सन्यासी प्रायः आया करते थे।जो एक -एक सप्ताह रुक कर सूर्यास्त के बाद रात नौ दस बजे तक प्रवचन किया करते थे।मेरे पूज्य पितामह , पिताजी तथा मैं स्वयं अपने उस उद्यान की भलीभाँति देखरेख करते थे।जैसे ही गाँव के सत्संग प्रेमी भक्तों को जानकारी होती कि हमारे बँगले पर महात्मा जी आए हुए हैं ,लोग प्रतिदिन स्वयं समय से आ उपस्थित होते और श्रद्धापूर्वक सत्संग श्रवण करते तथा अपनी शंकाओं का समाधान भी पाते।
सत्संग में आने वाले भक्तों के लिए तथा सभी जन के लिए उन संतों के द्वारा एक शब्द मुझे बहुत प्रभावित करता रहा , जो आज तक मेरे मानस में उथल -पुथल मचाता रहा है।वह शब्द है : 'मूर्ति'।मैं केवल मिट्टी ,पाषाण ,धातु या किसी अन्य वस्तु से बनी हुई रचना को ही मूर्ति मानता था। अन्य लोगों की मान्यता भी यही हो सकती है। लगभग छः दशकों से मन में उथल पुथल मचाते हुए 'मूर्ति ' शब्द पर विचार करने का सु -समय आज आया है।महात्मा जी प्रायः कहा करते अभी कुछ और मूर्तियाँ आ जाएं, तब सत्संग प्रारम्भ करेंगे।उनकी सत्संग - चर्चा में भी मनुष्यों के लिए 'मूर्ति' शब्द ही उच्चरित होता।मैं यद्यपि छोटा किशोर बालक ही था।शब्द का अर्थ और भाव भी समझता था ;किन्तु कभी उनसे या किसी अन्य से प्रति प्रश्न नहीं किया। आज जब स्वयं समाधान के आसन पर बैठ पाया हूँ ,तो प्रयास कर पा रहा हूँ।
'मूर्ति' शब्द 'मूर्त्त ' से निर्मित हुआ है। अर्थात जो अपने सहज और स्वाभाविक स्वरूप में प्रत्यक्ष है ,वही मूर्त्त है ,वही साक्षात है। वस्तुतः जीवात्मा का मूल स्वरूप यह नश्वर देह नहीं है। किसी जीव की आत्मा का मूल स्वरूप जो मूर्त्त (प्रत्यक्ष) है ;वह हमारे चर्म- चक्षुओं से अदृष्ट है। इस नश्वर देह को प्राणवान करके उस जो रूप दिया गया है ,वही 'मूर्ति' है।वह उस आत्मा की प्रतिकृति (कॉपी) है , मूलप्रति (ऑरिजिनल) नहीं है।किसी भी प्रतिबिम्ब को साकार रूप में की गई अभिव्यक्ति 'मूर्ति 'है। ये मानव शरीर किसी आत्मा (प्रतिबिम्ब)का साकार रूप ही तो है ,इसलिए संत जन मनुष्य को 'मूर्ति' संज्ञा से संबोधित करते थे और आज भी करते आ रहे हैं।'मूर्ति' शब्द के अनेक पर्याय हो सकते हैं ।यथा : प्रतिमा, अनुरूपक,प्रतिकृति,बुत,अनुकृति, आकृति, अर्चा,ढाँचा, निगार आदि।
आत्मा के ऊपर चढ़ाया गया यह अस्थि, रक्त, माँस और मज्जा का आवरण ही मूर्ति है।मिट्टी, पाषाण ,धातु आदि से निर्मित मूर्तियों और प्रकृति के चतुर चितेरे विधाता की मूर्ति- निर्माण कला में पर्याप्त अंतर है।मनुष्य ने भी कठपुतली तथा विविध प्रकार की मूर्तियों का निर्माण किया है ;किन्तु वह उनमें प्राण संचार नहीं कर सकता ।यही परमात्मा और आत्मा का विशेष अंतर है। मानव शरीर की क्रियाएँ यांत्रिक या मशीनी नहीं , वे प्राण और आत्म शक्ति से संपादित और संचालित हैं।
अब आज यह समझ में आया है कि ये मनुष्य देह भी चलती फिरती 'मूर्ति 'ही है। क्योंकि वह आत्मा की प्रतिकृति है। यथार्थ नहीं, वास्तविक नहीं। संत जन की वाणी निस्संदेह मिथ्या नहीं है।सत्याभास भी नहीं।सत्य ही सत्य है। सर्व सत्य है।सर्वांश सत्य है।स्वामी जी के सत संबोधन और प्रवचनों की सार्वभौमिकता आज उस सत्य का बोध कराती है ,जो छः दशक पूर्व इस अकिंचन के इन कानों के श्रवण - यंत्रों ने अनुभव किया था।धन्य हैं वे संत श्रेष्ठ जिनकी पावन वाणी अद्यतन आनंदानुभूति कराती है।
●शुभमस्तु !
07.10.2023◆6.30 आ०मा०
●●●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें