438/2023
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● © शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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अद्भुत है तू
साँचा - धारी
मूर्ति बनाकर
रहा तोड़ता
अपने साँचे
नए बनाता नित्य,
और फिर
पास न रखता।
तू मौलिक,
तेरी हर रचना
मौलिक,
नहीं एक -सी
दो प्रतिमाएँ
इस धरती पर
कभी बनाता,
सृष्टि विधाता।
नर -नारी के
कोई चेहरे
नहीं एक सम,
रूप रंग आकार
भिन्न हैं,
नहीं कभी
दो हाथों की
रेखा भी मिलतीं
धन्य नियंता!
एक राम हैं
एक कृष्ण हैं
बना न दूजा,
महिषासुर
रावण कंसासुर
सभी एक थे,
कोई प्रत्यावर्तन
स्वीकार न प्रभु को।
मिथ्या है यह
कभी लौटता है
इतिहास दोबारा,
प्रजापिता ने
नया बनाया
पिछला तोड़ा,
पीछे छोड़ा।
'शुभम्' नित्य कर
रचना अपनी
नई नवेली ,
सुघर हवेली,
कर अठखेली
काव्यमृत से,
तू भी उसकी
रचना मौलिक,
मौलिक ही रच,
तप में तच - तच।
●शुभमस्तु !
05.10.2023◆6.30आ०मा०
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