रविवार, 1 अक्तूबर 2023

बाड़ खेत को खाय● [ व्यंग्य ]

 429/2023


●●●●●●●●●●●●●●●●●●● 

●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● 

 बाड़ खेत खा जाय।

 खेत कहाँ अब जाय!!

 विकट विडम्बना का वातावरण है।बात बतियाने में न कोई आवरण है।आम आदमी कहें या किसान कहें ,उसका संकट में हर अगला चरण है।खेत की हरी -भरी फसल के लिए वह मजबूत बाड़ की आड़ की ठाड़ बनाता है। निश्चिंत होकर रात को बेचारा घर के बरामदे में सो जाता है। लेकिन जब सुबह खेत की ओर जाता है ,तो बरबाद अपनी हरी -भरी फसल को पाता है। देखकर उसका दिल बैठ जाता है। आख़िर कौन है वह जो रातों - रात उसकी फसल चट कर जाता है।जिस फसल की लहलहाती बालियां देखकर वह इतना इतराता है कि जामे से बाहर निकल आता है।उसके सपनों पर तुषारापात हो जाता है।वह कुछ भी नहीं कर पाता है।

 देखता है तो किसी जंगली जानवर के पद चिह्न नहीं पाता है।असमंजस में वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो रुआँसा हो जाता है।जो सोचा भी नहीं था ,जब वही सच हुआ पाता है ,तो वह खड़ा- खड़ा पत्थर हो जाता है। बाड़ के हाथ पैर और मुँह निकल आए और एक रात में सब चट कर जाए।आदमी अपना विश्वास कैसे तो टिकाये? 

 देश रूपी बृहत खेत की किसानी तथा उसका प्रत्येक उत्पादन आम आदमी कर रहा है।लेकिन वही उत्पादक तथाकथित अन्नदाता फाकों में जीवन जी रहा है।सड़ा हुआ टमाटर वह स्वयं खा रहा है और लाल लाल बेदाग चिकना बड़ा -बड़ा छंटा हुआ वह बेचकर पत्नी के लिए साड़ी और मुनिया के लिए फ्रॉक तथा मुन्ने के लिए नेकर लेकर आ पा रहा है।और इतने में ही उसकी एक दिन की कमाई गँवा रहा है।अपने लिए छत्तीस छिद्रों से झाँकती हुई बनियान भी नहीं बदल पा रहा है।वह अपनी फसल का मूल्य भी नहीं लगा पा रहा है। खरीददार ही मालिक बना हुआ कीमत लगा रहा है।  नेताराज में नेता ही राजा है। किसान की टका सेर भाजी है ,टका सेर खाजा है।जिसको घुमा फिरा कर नेता ही खाता है।कहने भर को प्रजा का तंत्र है ।किंतु उस तंत्र में भी राजनीति का मंत्र है।आम आदमी आज भी परतंत्र है।उसके लिए पूँजीपति, बनिया ,नेता, अधिकारी आदि सभी का यंत्र है। 

 नेताजी आया। सारे शहर को कारागार बनाया।आना -जाना डायवर्ट कराया। जिसने बैनर बाँस -बल्ली से नगर ,सड़क, मैदान ,सभा-स्थल को सजाया।उसी के लिए रास्ता बंद कराया। बेचारा आठ -आठ घण्टे हाड़तोड़ गर्मी में जब काम करके लौटा तो रास्ते में आरक्षियों ने तीन - तीन घण्टे उसे भूखा प्यासा टोका।नंगा -झोरी भी ली और बना दिया खोखा।उसे चोर -उचक्के की तरह डाँटा -फटकारा ।अँधेरी रात में लुटा -पिटा लौटा। इस प्रकार खेत की बाड़ ने ही आम आदमी को लूटा -खसोटा।नेताजी का आगमन। मुसीबत का आगमन। शान्त सरोवर में प्रस्तर प्रक्षेपण।आम आदमी का करोड़ों करोड़ बहाना।नेताजी का नगर के मैदान में आना।आम आदमी की फ़जीहत बुलाना।बेमन से गाती है जनता नेताजी का ताजा तराना। 

 देश का उद्धार नारों से होगा।सजे -धजे नारों से गीत -संगीत बनाया जाएगा। उसमें आम आदमी को पहना -ओढ़ाकर सजाया जाएगा ।कहीं राम कहीं हनुमान भी बनाया जाएगा ।मुफ्त का राशन देकर उसे निकम्मा और हरामखोर बनाया जाएगा।उधर कुर्सी के लिए वोट बटोरा जाएगा ।मतमंगा बनकर घर- घर ,दर -दर,डगर- डगर मत माँगा जाएगा।एक -एक कुंटल की माला का अर्पण और सिक्कों से उसे नापा - तोला जाएगा।इसका पैसा उसी के हलक से निकाला वसूला जाएगा।इस प्रकार बाड़ का काँटा खेत को खा जाएगा। खा ही रहा है।गुर्गा गीत गा रहा है। चमचा चाँदी की चम्मच में चटनी चाट रहा है।उसकी प्रशस्ति में सोशल मीडिया पर नारे उभार रहा है।वीडियो बना - बना कर ऐबों को दबा रहा है।कुछ यों - ऐसे - वैसे बाड़ खेत को चौपट किए जा रहा है।नेताजी के विरोधियाँ के ऐबों की लंबी सूची दिखला रहा है और उसका जनमत नीचे खिसका रहा है। अपना बैरोमीटर ऊँचा बता रहा है। नेताजी समाज दूध से धुलकर सीधा जनता के बीच जो जा रहा है। पवित्रता और निर्मलता में उसने हंस को भी धता बता दी है।वह तो अब अंडा माँस मदिरा तो क्या लहसुन प्याज भी नहीं खा रहा है। पर आम आदमी का लहू हर तरीके से पिए जा रहा है और जिससे पैदा हुआ है उसे ही चला रहा है। कुछ यों ये बाड़ ही खेत को खा चबा रहा है। 

 ● शुभमस्तु ! 

 01.10.2023◆4.30 आ०मा० 

 ●●●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...