सोमवार, 24 जून 2024

बदल रही दुनिया [ गीतिका ]

 287/2024

        

शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बदल रही दुनिया क्षण -क्षण में ।

मानव  झोंक  दिया   है रण  में।।


मात - पिता की   करें   न   सेवा,

लगा  मान  दाँवों  पर   पण   में।


मन  अपवित्र  बुद्धि   दूषित   है,

कठिनाई     अति   संप्रेषण   में।


बारूदों    के      ढेर   लगे    हैं,

आग  सुलगती  मन  के व्रण में।


मन  पर   धूल   लदी    है   ढेरों,

झाड़   रहा   है  रज  दर्पण   में।


वाणी  से   जन    नीम   करेला,

प्रकृति  नहीं मधु  रस वर्षण में।


'शुभम्' जिधर  देखो  व्याकुलता,

लपटें  उठी    हुईं   जनगण   में।।


शुभमस्तु !


24.06.2024● 12.45आ०मा०

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मानव झोंक दिया है [ सजल ] समांत : अण

 286/2024

        

पदांत     : में

मात्राभार :16

मात्रा पतन: शून्य।


शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बदल रही दुनिया क्षण -क्षण में ।

मानव  झोंक  दिया   है रण  में।।


मात - पिता की   करें   न   सेवा।

लगा  मान  दाँवों  पर   पण   में।।


मन  अपवित्र  बुद्धि   दूषित   है।

कठिनाई     अति   संप्रेषण   में।।


बारूदों    के      ढेर   लगे    हैं।

आग  सुलगती  मन  के व्रण में।।


मन  पर   धूल   लदी    है   ढेरों।

झाड़   रहा   है  रज  दर्पण   में।।


वाणी  से   जन    नीम   करेला।

प्रकृति  नहीं मधु  रस वर्षण में।।


'शुभम्' जिधर  देखो  व्याकुलता।

लपटें  उठी    हुईं   जनगण   में।।


शुभमस्तु !


24.06.2024● 12.45आ०मा०

                    ●●●

गुरुवार, 20 जून 2024

नई साड़ी ! [ व्यंग्य ]

 285/2024



 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 किसी कवि ने क्या खूब कहा है: 'लड़की वह अचार की मटकी,हाथ लगे कीड़े पड़ जाएं।' नारी की नाजुकता की यह पराकाष्ठा है।इससे भी आगे बढ़ें तो एक बात यह भी है कि साड़ी स्त्री की देह से छू जाने के बाद पुरानी हो जाती है ।तभी तो स्त्रियां अलमारी भरी रहने के बावजूद प्रायः यही कहती पाई जाती हैं कि उनके पास पहनने के लिए साड़ी ही नहीं है। शायद उसकी दैहिक अपवित्रता का यह बहुत बड़ा कारण है।इसलिए विवाह शादी या किसी उत्सवीय अवसर पर वे यही कहती हैं नई साड़ी हो तभी तो जाऊँ! और पुरुष का कोई वस्त्र कभी अशुद्ध नहीं होता और वह एक ही जोड़ी कुर्ता धोती या पेंट शर्ट को दसियों वर्ष खुशी - खुशी पहनता रहता है। बिना किसी शिकायत या ताने के। कितनी विडम्बना की स्थिति है? 

   हर अवसर पर नई साड़ी का मुद्दा घर परिवार और उसके पति के लिए चिंतनीय अवश्य है, किन्तु यदि राधा को नचवाना है तो नौ मन तेल का इंतजाम भी करना होगा।यदि नहीं करते तो समझ लीजिए कि क्या होगा , घर का गैस का चूल्हा भी नहीं जलेगा। और जब चूल्हा नहीं जलेगा तो दूल्हा भी आगे नहीं चलेगा।नित नवीनता का नारी चिंतन पुरुष वर्ग के लिए कितना भी महँगा पड़ जाए ,तो पड़ता रहे।कोई कुछ कहे तो कहता रहे ,पर यह तो नारी - संविधान की धारा 'त्रिया चरित्रम : नारी अपवित्रम' में कनकाक्षरों में खचित किया हुआ है;जिसे मिटाया नहीं जा सकता।

   यदि नारी के इस साड़ी प्रेम की तह में जाएं तो ज्ञात होता है कि इसकी असली जड़ तो पुरुष के मष्तिष्क में ही मिलेगी। अपनी आँखें सदा शीतल बनाए रखने के लिए उसने स्वयं ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारी है।विवाह के बावन वसंत व्यतीत होने के बाद भी वह पत्नी को षोडशी ही देखना चाहता है।इसीलिए कहीं भी अपनी जन्मतिथि लिखवाते समय वह तारीख महीना और सन पूरे- पूरे लिखवाता है। यह अलग बात है कि भले ही चार छ:साल कम लिखवा दे।किन्तु नारियों को यह संस्कार की घुट्टी में घिस - घिस कर पिला दिया जाता है कि कभी किसी को अपनी सही -सही उम्र मत बता देना अन्यथा तुम्हें बुढ़िया करार दिया जाएगा।स्कूल में नाम लिखवाते समय यदि पूरी जन्मतिथि लिखवाने की अनिवार्यता नहीं होती तो वहाँ भी लिखवा दिया जाता :जन्मतिथि -20 जून। अरे ! वर्ष और महीने से क्या लेना - देना ? बाबा तुलसीदास जी की चौपाई के 'अनृत' शब्द की सार्थकता की यहाँ पुष्टि हो जाती है : (साहस, अनृत, चपलता ,माया) । यदि विचार किया जाए तो वे कुछ गलत भी नहीं करतीं। जब जन्मतिथि पूछी गई है तो तारीख ही तो लिखनी चाहिए। तिथि में मास और वर्ष तो आते ही नहीं हैं।इसलिए वे उन्हें अनावश्यक रूप से लिखें ही क्यों ? इसीलिए यह भी एक नारी सूत्र बन गया कि कभी किसी स्त्री की उम्र नहीं पूछनी चाहिए। यह असभ्यता की श्रेणी में गिना जाता है। 

    स्त्री को आसमान पर चढ़ाए रखने में बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। अपने स्वार्थ की पूर्ति के कामी पुरुष ने नारी को सोने की जंजीरों में जकड़ दिया।उसे फूल,गुलाब,चंपा, चमेंली,रात की रानी की उपमाएँ देकर कहाँ से कहाँ ले जाकर विराजमान कर दिया। वह उसकी झील जैसी आँखों की गहराई में आकंठ डूब ही गया : (झील-सी गहरी आंखें चाँद-सा रौशन चेहरा)। गाल गाल न रहे,गुलाब हो गए।गर्दन सुराही हो गई। क्षीण कटि मृणाल हो गई। जाँघें भी जाँघें ही कब रह सकीं, वे कदली स्तम्भ बन गईं।केश सघन मेघ में तब्दील हो गए। कुल मिलाकर स्त्री, स्त्री नहीं रही , वह फूल पत्तियों का सचल बागीचा ही बन गई। जिसमें झील भी है,फूल पत्तियां ,लताएँ ,झुरमुट चाँद - सभी कुछ तो है। यदि नहीं है ,तो बस वह स्त्री नहीं है। 

    सोचिए नारी के पुरुष द्वारा इतने नाज नखरे उठाए जाएँगे तो उसे क्या पड़ी कि वह एक साड़ी को एक बार देह से छू भर जाने के बाद उसे पुरानी न कहे ? अब लो ! और झेलो! चाहे उसके अरमानों से खेलो! अब कहा है कि एक भी साड़ी नहीं है ,तो एक और ले लो! अब ये अलग बात है कि साड़ी- सेंटर में मिलने वाली हर साड़ी पुरानी ही होगी। क्योंकि वह भी तुम्हारी ही किसी अन्य बहिन की देह से छुई गईं होगी। तुम्हारे लिए नई है, पर उतरन ही होगी। 

 शुभमस्तु ! 

 20.06.2024● 8.30 प० मा०

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तप [अतुकांतिका]

 284/2024

                        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तप कोई हो

सहज नहीं है,

तपता तपसी

और प्रभावित

होता अग - जग

तप की ज्वाला।


सूर्य देव भी

तपते निशिदिन

स्वाभाविक है

कष्ट जगत को,

तप का फल

सब मधुर चाहते

किंतु न 

किंचित कष्ट चाहना।


कल जब

बरसेंगी अंबर से

नन्हीं -नन्हीं

जल की बूँदें,

नर -नारी

बालक युव जन सब

नौ - नौ बाँस

उछल कर कूदें।


प्रकृति का

यह कोप न समझें,

होना ही है

जो स्वाभाविक,

भावी समय

सुखद ही होगा,

यह जीवन संघर्ष 

स्वतः है।


हार गया जो

चला गया वह

जीवन छोड़

अतीत बन गया,

जो जूझा

वह जीत गया है

जटिल प्रश्न यह

किसने बूझा?


आओ 'शुभम्'

साथ तपसी के

अपने तप का

साज सजा लें,

गर्मी सर्दी या वर्षा हो

सबके ही सब

साथ मजा लें,

तप की  अपनी 

ध्वजा उठा लें।


शुभमस्तु !


20.06.2024●2.15 प०मा०

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बड़े काम का होता चमचा [बाल गीतिका]

 283/2024

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बड़े   काम    का   होता   चमचा।

नेताजी   को      ढोता    चमचा।।


भरे     भगौने    खाली    कर   दे,

मैले  को    भी    धोता    चमचा।


बिना    पूँछ     का  नेता   मुंडित,

नेता को     यदि   खोता   चमचा।


मालपुआ    या     मेवा     मिश्री,

देता  है    यदि    सोता    चमचा।


नेता     के   पैरों    पर  चल कर,

राष्ट्र   -   एकता     बोता  चमचा।


सदा    नहाए      गङ्गा  -  जमुना,

खूब   लगाता      गोता    चमचा।


'शुभम् ' सदा   है   सिर हाँडी में,

घी में   दसों     डुबोता   चमचा।


शुभमस्तु !

20.06.2024●1.30प० मा०

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मधुमक्खी का छत्ता देश [बाल गीतिका ]

 282/2024

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मधुमक्खी   का    छत्ता    देश।

देन    एकता     का     संदेश।।


सदा    संगठित    रहना   साथ,

तब बनता  सुदृढ़   निज   देश।


जाति - पाँति   मजहब का भेद,

हर्ष    न     छीने   उनका   देश।


फूलों  से    रस   भरकर  लातीं,

भरा    मधुरता    से   शुभ  देश।


करें    परागण     फूलें      खेत,

विटप शाख पर   सजता  देश।


बाँट -बाँट  कर   करतीं    काम

लड़ना  क्योंकर    अपना  देश।


'शुभम्' मनुज  सब ही लें सीख,

नेक   बनाएँ     शुभकर    देश।


शुभमस्तु !


20.06.2024●12.30 प०मा०

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सभी खिलौने में भूले हैं [बालगीत]

 281/2024

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'.


सभी     खिलौने    में    भूले    हैं।

लिए    हाथ    में    वे   फूले   हैं।।


क्या  बालक   बूढ़े    नर  -  नारी।

सबको   लगी   एक     बीमारी।।

आसमान  तक    वे     ऊले    हैं।

सभी    खिलौने    में    भूले   हैं।।


अतिथि कभी  घर  पर जो  आए।

तरस - तरस  पानी   को   जाए।।

बंद     पड़े  घर     के    चूले    हैं।

सभी    खिलौने    में    भूले   हैं।।


बालक      बैठे    छोड़     पढ़ाई।

सभी व्यस्त   हैं     चाची   ताई।।

दुलहिन   हो   या   हों    दूले  हैं।

सभी    खिलौने  में    भूले    हैं।।


 बाबू    छोड़    काम   को   बैठा।

कहो   काम   की  उलटा   ऐंठा।।

धरे    मोबाइल    के    पूले     हैं।

सभी    खिलौने    में   भूले    हैं।।


'शुभम्'  तवे   पर   जलती   रोटी।

कच्ची - पक्की     पतली -मोटी।।

घर  भर   में     कचरा- धूलें     हैं।

सभी    खिलौने  में      भूले   हैं।।


शुभमस्तु !


20.06.2024●12.00मध्याह्न

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सब कहते हैं मुझको घण्टा [बाल गीतिका]

 

280/2024      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सब     कहते   हैं    मुझको   घण्टा।

पिट-पिटकर क्या  मिलता  घण्टा??


जो   भी    मंदिर   में   घुस    आता,

सबसे    पहले      पिटता     घण्टा।


बहरे     हैं    क्या       देव - देवियाँ,

जो   कहते   हैं     पीटो      घण्टा।


जब तक   भाव  न बजते मन के,

वृथा  पीटना   जन   का   घण्टा।


गर्माता   मैं पिट -   पिट   कर ही,

सुनते  लोग न  मन   का   घण्टा।


मेरे   जीभ   -  गाल       टकराएँ,

स्वर में   एक   बजे   तब  घण्टा।


'शुभम्'  दया  हो   इस घण्टे पर,

निर्मम   हो   मत   पीटो   घण्टा।


शुभमस्तु !


20.06.2024●11.30आ०मा०

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[12:08 pm, 20/6/2024] DR  BHAGWAT SWAROOP: 281/2024

गर्मी ने क्या धूम मचाई [बालगीत]

 279/2024

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गरमी     ने   क्या   धूम   मचाई! 

हालत     कैसी     बुरी   बनाई!!


तवा  समान जल   रही    धरती।

चलती  लू    चिड़ियाएँ    मरती।।

पत्ती -   पत्ती     रही      जलाई।

गरमी  ने    क्या    धूम   मचाई!!


सूख    गए     हैं  ताल -  तलैया।

प्यासी  मरतीं     बकरी     गैया।।

भैंसों  की   भी    आफत   आई।

गरमी ने    क्या    धूम    मचाई!!


मेढक  -   मछली      मरते   सारे।

नर -  नारी     व्याकुल      बेचारे।।

सूख  गई    नदिया    की    काई।

गरमी  ने    क्या      धूम   मचाई।।


अमराई    में      टपका     टपके।

उन्हें बीनने   हम    सब   लपके।।

जीजी  को    रुच    रही   खटाई। 

गरमी  ने     क्या    धूम   मचाई!!


'शुभम्'  उधर   खरबूजे   महके।

खाने को हम   बालक   चहके।।

तरबूजे     में      लाल    मलाई।

गरमी  ने  क्या   धूम     मचाई।।


शुभमस्तु !


20.06.2024●10.30आ०मा०

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देखो एक मदारी आया [बालगीत]

 278/2024

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


देखो      एक    मदारी     आया।

सँग   में    बंदर - बँदरी    लाया।।


आगे  - आगे        चले      मदारी।

पीछे     चलते        दारा -  दारी।।

बाँध  रज्जु   में    गाँव    सिधाया।

देखो     एक     मदारी      आया।।


बंदर   पहने     लाल     झंगुलिया।

खुली   हुईं   सब  बीस अंगुलियाँ।।

बँदरी     पहने      चोली     साया।

देखो    एक     मदारी      आया।।


बजा    डुगडुगी    भीड़    जुटाई।

आए    भाभी     चाची      ताई।।

गीत  मदारी     ने  फिर     गाया।

देखो     एक    मदारी    आया।।


बंदर  -  बँदरी     नाच    रहे    हैं।

धमाचौकड़ी      मचा    रहे    हैं।।

बंदर   ने     उसको     धमकाया।

देखो एक        मदारी     आया।।


पूँछ    खींच      बँदरी    डरवाई।

दंड उठाया    वह    खिशिआई।।

'शुभम्'   मदारी    ने    बचवाया।

देखो   एक     मदारी     आया।।


शुभमस्तु !


20.06.2024●9.45 आ०मा०

देखो चूरन वाला आया [ बालगीत ]

 277/2024

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


देखो       चूरन      वाला    आया।

खट्टा  -  मीठा       चूरन    लाया।।


गली -  गली   में   घण्टी   टुन- टुन।

हम खुश होते ध्वनि को  सुन-सुन।।

बच्चों     में         आनंद    समाया।    

देखो    चूरन      वाला       आया।।


मम्मी  दो   दो    रुपया    हमको।

चूरन   मैं     लाऊँगा      सबको।।

मुख  में   पानी   भर -भर  पाया।

देखो     चूरन    वाला     आया।।


जीजी    कहती    खट्टा     लाना।

लगता  मुझको  बड़ा     सुहाना।।

पर  मैं    तो    मीठा   ले    धाया।

देखो    चूरन      वाला     आया।।


रंग  -   बिरंगा      चूरन    उसका।

चखती  जीभ स्वाद  ले  रस का।।

दादी  माँ   को    खूब     लुभाया।

देखो    चूरन      वाला     आया।।


'शुभम्'  खड़े    हम   उसको   घेरे।

खट - मधु रस के   हम   सब चेरे।।

चूरन  -  गीत      सभी   ने   गाया।

देखो    चूरन      वाला      आया।।


शुभमस्तु !


20.06.2024●8.15 आ०मा०

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बुधवार, 19 जून 2024

धर्म बिना धरती नहीं [दोहा]

 276/2024

        

[देश,धर्म,राजनीति,सत्य ,समाज]

                 

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                 सब में एक

इसी देश  में  जन्म  लें,  रहकर  खाएँ   अन्न।

गद्दारी   उससे   करें, देख - देख   हम    सन्न।।

जो  कृतघ्न  इस देश के,  विषधर काले  नाग।

सावधान   उनसे   रहें,  सुप्त  मनुज तू जाग।।


धर्म बिना धरती नहीं,  कर्म बिना क्या  व्यक्ति।

धारण  हम  उसको  करें,जन-जन में अनुरक्ति।।

धुरी धर्म   की सत्य  पर, आधारित  हो   नित्य।

मानवता   मंगलमयी,  जिसका   हो औचित्य।।


राजनीति से   छद्म  का,  सीधा सा   सम्बंध।

आधारित  जो  झूठ   पर,   बढ़ा  रही    दुर्गंध।।

राजनीति   के     खेत  में,   नेता       मेवाखोर।

छाछ  नहीं जन  को मिले, चाटें मक्खन    चोर।।


नेताओं   के   राज  में, नहीं  सत्य  की    बूझ।

जनता  मानो  भेड़  हो, नहीं   रहा कुछ   सूझ।।

सत्य- सत्य चिल्ल्ला रहे,  किंतु सत्य   से  दूर।

झूठ   गले    में हार - सा,   सच  है चकनाचूर।।


भेड़चाल में  चल रहा,विघटित मनुज समाज।

खंडित  जन  की  एकता, नेता  के सिर  ताज।।

सब  अपने  मन  की करें,देखें हित न   समाज।

स्वार्थलिप्त नर-नारियाँ, खुजा रहे निज  खाज।।


                  एक में सब

सत्य नहीं अब धर्म में,राजनीति ज्यों    खाज।

धर्म हुआ लाचार - सा,जन ज्यों भेड़ - समाज।।


शुभमस्तु !


18.06.2024● 11.00प०मा०

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चलो नहाने निर्मल गंगा [बाल गीतिका]

 275/2024

          

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चलो      नहाने    निर्मल     गंगा।

ताप    नशाये     अपने     गंगा।।


जेठ  मास     की   धूप    सताए,

कष्टहारिणी       शीतल      गंगा।


प्यास    बुझाए      अन्न    उगाए,

सुघर   शाक   फल   देती   गंगा।


खग वन जीव किलोल करें नित,

सुख बरसाए    कलकल    गंगा।


देवनदी     सुरसरि     कहलाती,

भागीरथी      नदीश्वरि       गंगा।


गायत्री        गोमाता       पावन,

संग   त्रिपथगा    गोचर    गंगा।


'शुभम' न   कचरा   फेंको   कोई,

जीवनदायिनि  जी    भर    गंगा।


शुभमस्तु !


18.06.2024●5.00आ०मा०

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गंगा माँ को प्रणत प्रणाम [ गीत ]

 274/2024

    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पाप ताप 

नाशिनी तरंगिणि

गङ्गा माँ को प्रणत प्रणाम।


आया पर्व

दशहरा गङ्गा

लहर- लहर लहराए कलकल।

गंगोत्री से

निसृत अमृत

बहता जाए भू पर छलछल।।


सुरसरि देवनदी

ध्रुवनन्दा

नदीश्वरी मंदाकिनि नाम।


नर -नारी

आबाल वृद्ध जन

नहा रहे  हर-हर गंगे।

साड़ी धरे 

नहातीं नारी

बालक कूद-कूद  नंगे।।


भागीरथी 

त्रिपथगा सुरधुनि

पल को लेती नहीं विराम।


धन्य -धन्य 

हम भारतवासी

धन्य भगीरथ जो लाए।

धरती पर

उतार सुरपुर से

पयस्विनी ने स्वर गाए।।


'शुभम्' पापहर

रूपधारिणी

बना धरा पर गङ्गाधाम।


शुभमस्तु !


18.06.2024●4.30 आ०मा०

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त्याग [ चौपाई ]

 273/2024

              

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मथुरा     के     कान्हा   अवतारी।

त्याग  बने    ब्रज    में    संसारी।।

गोकुल   को अपना   पथ   साधा।

पथ  में  मिलीं  बहुत विधि  बाधा।।


मात   यशोदा     को    अपनाया।

ग्वाल बाल    से    नेह   लगाया।।

गोकुल  कब तक  उनका   होता।

त्याग  गए   वन   सबको   रोता।।


मथुरा   पुनः   पुकार   रही   थी।

त्याग वृत्ति  उर धार   बही   थी।।

कंस असुर   सबको   ललकारा।

गोकुल त्यागा    किया  किनारा।।


मिली  राह  में    कुबड़ी   दासी।

त्यागा  कूबड़    भरी    उबासी।।

जन से मोह न    करना   जाना।

त्याग  पंथ    जिनका  पैमाना।।


कब तक बन मथुरा   के   वासी।

रहे कृष्ण कब   त्याग   उदासी।।

पुरी    द्वारिका   जलधि   बसाई।

त्याग भाव    की     छाई   काई।।


जब ब्रज   में   अपनाई   राधा।

त्याग उन्हें भी निज पथ साधा।।

त्याग त्याग बस त्याग कमाया।

अवतारी   जब भू   पर  आया।।


'शुभम्' त्याग की विकट कहानी।

अति अनहोनी जग   ने   जानी।।

त्याग भाव  का   पाठ   पढ़ाया।

अवतारी कान्हा  जब    आया।।


शुभमस्तु !


17.06.2024●2.45प०मा०

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विश्वनाथ [ दोहा ]

 272/2024

   


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


काशी शंभु-त्रिशूल पर, बसी सकल सामोद।

विश्वनाथ  शंकर   करें,  वास  जहाँ ले   गोद।।

द्वादश  ज्योतिर्लिंग  में, विश्वनाथ शुचि  धाम।

सबसे  पावन  तीर्थ है, शिव जी सदा अकाम।।


पश्चिम  गंगा  तीर  पर, विश्वनाथ  का     धाम।

जगती  को  पावन  करे, शिव  गौरी का  नाम।।

विश्वेश्वर   के    नाम  से,  जगती   में विख्यात।

विश्वनाथ   मंदिर   सदा,कहे 'शुभम्' यह बात।।


प्रकट  पूर्ण   ब्रह्मांड  के,स्वामी शिव भगवान।

विश्वनाथ   कहते  सभी, मानव भक्त सुजान।।

शिव  संस्कृति  में  अर्चना,  पूजा का शुचि भाग।

विश्वनाथ  है  केंद्र  में,क्यों  न  मनुज तू  जाग ??


विश्वनाथ  भगवान  के , दर्शन  का शुभ  लाभ।

लिया   शंकराचार्य    ने,  पीकर पावन    आभ।।

एकनाथ  जी     संत     भी,   आए तुलसीदास।

विश्वनाथ - दर्शन  किए,कृपा  प्राप्ति की आस।।


माँ गौरी  शिव  शंभु का,यहीं आदि शुभ  वास।

विश्वनाथ की ख्याति का,प्रसरित जगत सुहास।।

प्रलय   काल  आए भले, कभी न होता   लोप।

विश्वनाथ   भगवान  जी,दिखलाते निज    ओप।।


'शुभम्' हृदय में जागता,  मन  में  शुचि  विश्वास।

विश्वनाथ   भगवान   के ,शुभ दर्शन की  आस।।


शुभमस्तु !


17.06.2024● 1.30 प०मा०

                    ●●●

छाँव पिता का प्यार [ दोहा गीतिका]

 271/2024

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जीवन  तपती  धूप है, छाँव पिता का प्यार।

बाहर से  पाहन  लगें, भीतर  सौम्य दुलार।।


सघनित  शीतल  छाँव  में, बैठे  हर संतान,

पिता  हमारे   थे   वही,अद्भुत शुभ संसार।


यद्यपि  बड़े  अभाव  थे, हुआ  नहीं आभास,

खड़े  सदा  वे  साथ में,बन उन्नति का  द्वार।


सागरवत    गहराइयाँ,   प्रेरक  सूर्य समान,

नीलांबर  का   रूप   वे,थे   अनंत विस्तार।


आज पिता  के  पुण्य का,जीवन है अवदान,

दाता  भी  भगवान  वे,  दिया  हमें  है   तार।


पितुराज्ञा  इच्छा   बनी,   कर्मठता का    पाठ,

सिखलाते  मेरे   पिता,  कर   जीवन उद्धार।


'शुभम्' न की  अवहेलना, इतना तो है    याद,

सिर   मेरा   किंचित  दुखा,चिंतित वे बेजार।।


शुभमस्तु !


17.06.2024● 3.15आ०मा०

                     ●●●

जीवन तपती धूप है [सजल]

 270/2024

         

समांत      : आर

पदांत       :अपदांत

मात्राभार   :  24

मात्रा पतन : शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जीवन  तपती  धूप है, छाँव पिता का प्यार।

बाहर से  पाहन  लगें, भीतर  सौम्य दुलार।।


सघनित  शीतल  छाँव  में, बैठे  हर संतान।

पिता  हमारे   थे   वही,अद्भुत शुभ संसार।।


यद्यपि  बड़े  अभाव  थे, हुआ  नहीं आभास।

खड़े  सदा  वे  साथ में,बन उन्नति का  द्वार।।


सागरवत    गहराइयाँ,   प्रेरक  सूर्य समान।

नीलांबर  का   रूप   वे,थे   अनंत विस्तार।।


आज पिता  के  पुण्य का,जीवन है अवदान।

दाता  भी  भगवान  वे,  दिया  हमें  है   तार।।


पितुराज्ञा  इच्छा   बनी,   कर्मठता का    पाठ।

सिखलाते  मेरे   पिता,  कर   जीवन उद्धार।।


'शुभम्' न की  अवहेलना,इतना तो है  याद।

सिर   मेरा   किंचित  दुखा,चिंतित वे बेजार।।


शुभमस्तु !


17.06.2024● 3.15आ०मा०

                     ●●●

माँ धरती आकाश पिता [ गीत ]

 269/2024

     

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


माँ धरती

आकाश पिता हैं

दो के मध्य बसे संतान।


धैर्य धारिणी

सौख्यकारिणी

जीवन  देने  वाली   मात।

नेहदायिनी

प्रेमवाहिनी

खिलता है जल में जलजात।।


आजीवन

लौटा न सकेंगे

मात-पिता के हम अहसान।


गीली शैया में

माँ सोई

शीत ठिठुरती काली रात।

सुख की सेज

सुला संतति को

करती लाड़ भरी माँ बात।।


जनक घाम में

सघन छाँव हैं

करें सुखों का अपना दान।


सौ जन्मों में

चुका न पाते

मात -पिता के ऋण का भार।

धर्म यही 

उनके चरणों में

सदा   मान   के  सौंपें  हार।।


माता-पिता 

सर्वस्व हमारे

वही हमारे हैं भगवान।


मात-पिता का

हृदय दुखाए

उसका   जाग   उठा दुर्भाग।

रौरव नरक

भोग आजीवन

बनता राख सुलगती आग।।


रोते पिता

कष्ट के आँसू

सुख के टूटें सभी वितान।


इच्छा ही आदेश

पिता की

संतति जो भी लेती मान।

सफल सदा

होता दुनिया में

बनता मानव एक महान।।


वही प्राण हैं

वही त्राण हैं

मानव - जीवन का अवदान।


शुभमस्तु !


15.06.2024●8.00पतनम  मार्तण्डस्य।

                    ●●●

अहंकार [अतुकांतिका]

 268/2024

                   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


टूट जाने के लिए ही

तो होती हैं 

कुछ चीजें,

जिनका टूट जाना ही

श्रेयस्कर है,

जन हित में

निज हित हैं,

वरना आदमी रावण

हो जाता है।


सोने की लंका भी

ढह गई

निर्वंश हुआ,

मिला क्या !

अब पछताए 

होता क्या,

जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।


धृतराष्ट्र हों

 कि दुर्योधन

सबका वही हस्र हुआ,

स्वयं ही खोदी खाई

स्वयं ही बनाया कुँआ!

होना था वही हुआ,

अहंकार नष्ट हुआ।


समय कभी

किसी को

 क्षमा नहीं करता,

आदमी दुष्कर्मों से

क्यों नहीं डरता?

अंततः समय कुछ 

कर के ही गुजरता!


विनम्रता में बहुत 

बड़ी सीख छिपी है,

वही नहीं तो

आदमी भी

आदमी नहीं है,

सूखी लकड़ियां

प्रायः टूट जाती हैं 'शुभम्',

वाणी में नम्रता ही

अनिवार्य है,

यह भी मानवता का

एक पावन सुकार्य है।


शुभमस्तु !


14.06.2024● 6.45आ०मा०

                  ●●●

बुधवार, 12 जून 2024

घुमक्कड़ विचार! [ व्यंग्य ]

 267/2024 



 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 जब भी मैंने उसे देखा चलते -फिरते, घूमते-भ्रमते,इधर से उधर और उधर से कहीं और जिधर चल पड़े उस डगर ;पर ही देखा। वह कभी भी शांत और संतोष पूर्वक नहीं बैठा।जैसे विश्राम तो वह जानता ही नहीं।कितना भी सहलाओ ,वह मानता ही नहीं।बस चलना और चलना और चलते ही रहना। लगता है 'चरैवेति चरैवेति' का मंत्र इसी के लिए बना है। वह कितना घुमक्कड़ है, बतलाना कठिन है। विराम तो जैसे जानता ही नहीं। 

 यह मेरा, आपका, सबका विचार है।हर समय यात्रा करने को लाचार है। इसको रोक पाने का भी नहीं कोई उपचार है।प्रतिक्षण अहर्निश इसका संचार है। जागरण, स्वप्न और सुसुप्ति में भी वह नहीं निर्विचार है। कभी अकेला ही चल पड़ता है।बड़ी - बड़ी ऊंचाइयों की सैर करता है।मानसून के बादलों जैसा उमड़ता है,घुमड़ता है।कभी इधर तो कभी उधर को मुड़ता है। यह विचार ही है ,जो सदैव चढ़ता बढ़ता है।

 कभी - कभी यह अपना जोड़ा भी बना लेता है।अकेले न चलकर बेड़ा सजा लेता है।आपस में बहुत से विचार घुल - मिल जाते हैं।कभी झूमते हैं तो कभी मंजिल को पाते हैं।कैसे कहूं कि विचार बेचारा है।विचार के चलने से ही तो आदमी को मिलता किनारा है।यह आदमी भी विचारों की गंगा-धारा है।विचार अपनी सुदीर्घ यात्रा में न थका है ,न हारा है।ये विचार भी मेरे मन में बड़ा प्यारा है।

 यह भी कम अद्भुत नहीं कि यह विचार ही है ,जो उसे अन्य दोपायों या चौपायों से विलग करता है।वही उसका विकासक है, इसी के पतन से आदमी मरता है।चौपायों के पास खाने और विसर्जन के अतिरिक्त कोई विचार ही नहीं है।इसीलिए मनुष्य सर्वश्रेष्ठ दोपाया है,यह बात सत्य ही कही है।यह अलग बात है कि इस दोपाये मनुष्य के भी कुछ अपवाद हैं। जो देह से तो मानव हैं,किंतु विचार की दृष्टि से पशु निर्विवाद हैं। क्योंकि उनका काम भी केवल आहार और विसर्जन है। विचार का तो उसके लिए पूर्णतः त्यजन है, वर्जन है।

 यह विचार ही है, जो मनुष्य की कोटि का निर्धारक है।विचार ऊँचा भी होता है और नीचा भी।छोटा भी होता है और बड़ा भी।ओछा भी होता है,महान भी। बढ़ाता या घटाता है संबंधित की शान भी। बन जाता है ,मानव का विचार महान भी।यह विचार ही है जो काट लेता है अच्छे अच्छों के कान भी।विचार ही जीवन है, विचार ही उसकी मान त्राण भी। 

 विचार की यह यात्रा यों ही निरर्थक नहीं है।मानव की बुद्धिशीलता का मानक यही है।मानव मानव की श्रेणी का यह विभेदक है।विचार के वितान का जन - जन बंधक है।विचार से ही कवि कवि है, वैज्ञानिक वैज्ञानिक।विचार से ही नेता नेता है, डाकू डाकू। विचार ही सुमन है, विचार ही है चाकू।चलेगा नहीं तो मार्ग में बढ़ेगा कैसे! बढ़ेगा नहीं तो शिखर पर चढ़ेगा कैसे! यह तय है कि कोई विचार बेचारा नहीं है।जो भी यह सुनिश्चित करता है,पात्रातानुसार वह उसके लिए सही है।इतना अवश्य है कि हम अपने विचारों को परिमार्जित करते रहें।विचार की संजीवनी से जीते रहें,आगे बढ़ते रहें। 

 शुभमस्तु !

 12.06.2024●10.30आ०मा०

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समय सबल संबल सदा [दोहा]

 266/2024

       

[सिकंदर,मतलबी,किल्लत,सद्ग्रंथ,राजनीति]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

       

                 सब में एक


समय  सिकंदर  से  सभी,सधते हैं  शुभ साज।

समय सबल  संबल सदा,बिना किसी आवाज।।

हाड़ - माँस    का    आदमी, भरता कोरा  दंभ।

समय सिकन्दर ही सदा,है सशक्त शुभ खम्भ।।


परहित   तो   आता  नहीं,यहाँ मतलबी लोग।

छपते   हैं  अखबार   में, जनसेवी का      रोग।।

हाँडी   मतलब   की  सदा, चढ़े एक ही   बार।

बढ़े  मतलबी  लोग   ही,मतलब का संसार।।


जिल्लत की किल्लत बड़ी,इल्लत बड़ी असाध्य।

मिन्नत में  पटु  लोग  जो, कुछ  भी नहीं अबाध्य।।

अच्छे  - अच्छे    लोग   भी, हो  जाते      बेहोश।

किल्लत   आती  भाग्य में, जिल्लत  का आगोश।।


अनुभव के सद्ग्रंथ  को,   पढ़ना देकर   ध्यान।

कदम - कदम  पर  हैं खड़े,दुश्मन खोले म्यान।।

सीख  अगर   शुभ  चाहिए, जीवन है  सद्ग्रंथ।

लीक   नहीं  सीधी  कभी, चलना है जिस  पंथ।।


राजनीति   में  मित्र का,करना मत   विश्वास।

उचित  यही  जा  खेत  में, चर लेना तुम  घास।।

राजनीति से  प्यार  है, फिर  भी घृणा  अपार।

घुसना   ही  सब  चाहते, बना उसे सब   यार।।


                    एक में सब

राजनीति  किल्लत  बड़ी,नहीं एक सद्ग्रंथ।

सभी सिकंदर मतलबी,खोज रहे शुभ पंथ।।


शुभमस्तु!


12.06.2024●3.15आ०मा०

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हालातों से लड़ना है [ गीत ]

 265/2024

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जीवन इतना

सरल नहीं है

हालातों से लड़ना है।


कदम-कदम पर

जटिल समस्या

स्वयं जिसे सुलझाना है।

रखे हाथ पर

हाथ न बैठें

अश्रु नहीं  बरसाना  है।।


तरसें एक 

बूँद पानी को

भूतल में सिर गड़ना है।


अपने ही पैरों

पर चलकर 

मंजिल  अपनी  पाते हैं।

करते काम

नहीं तन- मन से

मनुज वही पछताते हैं।।


लक्ष्य प्राप्ति के

लिए सदा ही

हर जन-जन को अड़ना है।


नहीं कामचोरी 

से चलता 

काम किसी का जगती में।

चींटी भी

निज श्रम से पाती

भोजन  अपना  धरती  में।।


शव बहते

 प्रवाह में सारे

जिनको जल में सड़ना है।


शुभमस्तु !


11.06.2024●8.15आरोहणं मार्तण्डस्य।

नीचे बिछा दो बोरियाँ [गीतिका ]

 264/2024

          

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नीचे    बिछा    दो    बोरियाँ,

माँ     गा   रही   है   लोरियाँ।


तप    पालना   संतति     महा,

सब    जानती    हैं     गोरियाँ।


संतान    का    दायित्व     है,

बोले   न   दारुण    बोलियाँ।


संतान   के   हित   ही   जिएँ,

करतीं    न   जननी   चोरियाँ।


खाली   न   होतीं   एक  पल,

जननी-जनक  की  झोलियाँ।


अनुकरण   से    ही   सीखतीं,

माँ     की      लड़ैती   पुत्रियाँ।


आओ  'शुभम्' नर   हम    बनें,

संतान     की   शुचि  ओलियाँ।


शुभमस्तु !


10.06.2024● 4.15आ० मा०

माँ गा रही है लोरियाँ [सजल]

 263/2024

  

सामांत     : इयाँ

पदांत      :अपदांत

मात्राभार  : 14.

मात्रा पतन : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नीचे    बिछा    दो    बोरियाँ।

माँ     गा   रही   है   लोरियाँ।।


तप    पालना   संतति   महा ।

सब    जानती    हैं   गोरियाँ।।


संतान    का    दायित्व     है।

बोले   न   दारुण    बोलियाँ।।


संतान   के   हित   ही   जिएँ।

करतीं    न   जननी   चोरियाँ।।


खाली   न   होतीं   एक  पल।

जननी-जनक  की  झोलियाँ।।


अनुकरण   से    ही   सीखतीं।

माँ     की      लड़ैती   पुत्रियाँ।।


आओ  'शुभम्' नर   हम    बनें।

संतान     की   शुचि  ओलियाँ।।


शुभमस्तु !


10.06.2024● 4.15आ० मा०

                    ●●●

जनता [कुंडलिया ]

 262/2024

                      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

कहते  जनता को सभी,यहाँ जनार्दन  ईश।

जनादेश   देती   वही, कहलाती जगदीश।।

कहलाती   जगदीश,  दृष्टियाँ उसकी पैनी ।

नेता  सब  उन्नीस, छाँटती छन- छन छैनी।।

'शुभम्' न समझें मेष,बंद कर दृग जो  रहते।

बदलें   जितने  वेष, इसे हम जनता कहते।।


                         -2-

मतमंगे  बन  माँगते,  जनता   से   वे वोट।

झुका शीश वे  चाहते,  देना  ही  बस चोट।।

देना  ही  बस  चोट,   सदा  झूठे आश्वासन।

भरे बहुत से खोट,दिखाते जन को ठनगन।।

'शुभम्' निकलता काम, नहाएँ हर- हर गंगे।

लक्ष्य   कमाना   दाम,सभी का जो मतमंगे।।


                         -3-

इतनी  भी भोली नहीं, जितनी समझें   लोग।

जनता अपने  देश  की, भरा स्वार्थ का    रोग।।

भरा स्वार्थ का रोग,मुफ़्त का सब मिल  जाए।

करना पड़े  न  काम,सुमन उर का खिल पाए।।

'शुभम्'  न  पाता जान,अतल  गहराई कितनी।

नेता    है  अनजान,   चतुर है  जनता इतनी।।


                         -4-

नेता    निकला    घूमने,   रैली  की ले टेक।

जनता से कहता  यही,मुझसे भला न  नेक।।

मुझसे    भला    न   नेक, दूसरा नेता  कोई।

मैं   ईश्वर   का  रूप,भाव भर आँख भिगोई।।

'शुभम्' रखें ये ध्यान,नहीं मैं क्या कुछ लेता।

रखता  सबका  मान,  सभी  हैं कहते नेता।।


                         -5-

जनता  को    कोई  नहीं, दे सकता है चाल।

जाता   जो  दरबार  में,  बदले उसका  हाल।।

बदले   उसका  हाल,  वही इतिहास बनाए।

डाल गले  में  माल,  उच्च आसन पर लाए।।

'शुभम्'  वही  नर  मूढ़, मूढ़ ही नेता बनता।

नेता  पर   आरूढ़,   सदा ही रहती जनता।।


शुभमस्तु !

07.06.2024●11.30आ०मा०

झुरमुट में लोकतंत्र! [अतुकांतिका]

 261/2024

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अनिश्चय के 

झुरमुट में

फंसा लोकतंत्र

चिल्ल्ला रहा

बार -बार

त्राहि माम ! त्राहि माम!!


भेड़ियों की 

झपट ने 

लहूलुहान कर दिया

अपना लोकतंत्र,

बड़ा ही असमंजस

बँटने लगी है

जूतों में दाल!

अति बुरा हाल!


अपने -अपने

उल्लुओं को

सीधा जो करना है,

बेपेंदी के लोटों को

यों ही तो

लुढ़कना है।


बड़ा ही अफ़सोस!

किस मोड़ पर

लाकर कर दिया

खड़ा ये देश,

बदल - बदल वेश,

आ गए महत्वाकांक्षी

जिनका नहीं कोई

चरित्र ,

 न बची नैतिकता,

भुगते अब देश,

बढ़ता हुआ

निरन्तर क्लेश।


ठगे गए हम

ठगा गया

 जनता जनार्दन

उसके ही स्वार्थ ने,

'शुभम्'  किसे दें दोष,

खो दिए होश

बढ़ा अति रोष!

आक्रोश ही आक्रोश।


शुभमस्तु !


07.06.2024●1.30आ०मा०

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जनादेश [ दोहा ]

 260/2024

                   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जनमत ही सबसे प्रमुख,प्रजातंत्र में आज।

जनादेश   देता   वही,  बना देश का साज।।

लालच   देकर  चाहते,जनादेश कुछ लोग।

जनता  ठुकराती  उन्हें,लगा पराजय रोग।।


आश्वासन  झूठे   दिए, भाषण भी पुरजोर।

जनादेश   कैसे  मिले , केवल  करते शोर।।

जनादेश  उसको  मिले,  जो जीते विश्वास।

कुछ तो  होनी  चाहिए, दलबन्दों से आस।।


जातिवाद  के  नाम   पर, जनादेश है व्यर्थ।

करे न राष्ट्र विकास जो,उसका भी क्या अर्थ।।

आडंबर   या  ढोंग  से , जनता  जाती ऊब।

जनादेश  मिलता  नहीं, लफ्फाजों को खूब।।


जनादेश  उसको  मिले, जो दे जन को  काम।

विक्रय  करे न  देश  की,सम्पति नमक हराम।।

करना  ही   तुमको   पड़े,  जनादेश स्वीकार।

काम  न आए  देश के, वह जनमत है   भार।।


बने   नहीं   सरकार   तो, जनादेश  है   व्यर्थ।

निधि खा  पीकर  मौज कर,नहीं देश के अर्थ।।

समझें   जनता   को   नहीं, नेता कोई   मूढ़।

भाषण  से  मिलता  नहीं,जनादेश क्या  रूढ़।।


'शुभम्'   देश  को  चाहिए,दल करता संघर्ष।

जनादेश    उसको   मिले,  करे  देश उत्कर्ष।।


शुभमस्तु !


05.06.2024 ● 9.45आ०मा०

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बैठा वट की छाँव में [ दोहा ]

 259/2060

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भोर  हुआ  सूरज   उठा, गगनांचल की  ओर।

जड़ - चेतन  जलने  लगे,   छू धरती के  छोर।।

लगता  सूरज  क्रोध  में, तप्त  धरा जल  वायु।

अंबर   उगले आग   ही, घटे जीव की  आयु।।


गौरैया  व्याकुल  बड़ी, मिली न जल की  बूँद।

पड़ी  नीड़  में  दुःख में, चोंच  नयन को  मूँद।।

लटका  अपनी  जीभ को,बाहर अपनी  श्वान।

हाँफ   रहे   हैं   छान   में,करें  कहीं जलपान।।


धरती पर  पड़ता  नहीं,  बिना उपानह   पाँव।

बैठा  वट   की   छाँव में, तप्त समूचा   गाँव।।

चलो   तरावट   के   लिए, खाएँ  हम तरबूज।

महक   रहा   है   खेत में, देखो  वह खरबूज।।


नीर    बिना   प्यासी  धरा, मरे  हजारों  जीव।

कहाँ  छिपे  बादल घने, चातक रटता   पीव।।

सूख  रहे    तालाब  भी,  निकल रहे हैं    प्राण।

व्यकुल  मछली  जीव जल, कौन करेगा त्राण।।


भैंस  गाय  व्याकुल  सभी, हाँफ रहे हैं  ढोर।

शूकर  लोटे   पंक  में,  छिपे  छाँव  में   मोर।।

कोई   शर्बत  पी   रहा,  कोई  लस्सी   छान।

गर्मी  का  परिहार   कर, करे जेठ का   मान।।


षट् ऋतुओं के देश में,तप का एक  प्रतीक।

अपना एक निदाघ है,   उत्तम  पावन  नीक।।


शुभमस्तु !


05.06.2024● 6.30आ०मा०

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कैसी बेढब रीति चली है! [ गीत ]

 258/2024


    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रौंदा अपने

अधीनस्थ को

कैसी बेढब रीति चली है।


छोटी मछली 

को खा जातीं

बड़ी मछलियाँ बीन -बीन कर।

कुचले जाते

नित गरीब ही

खा जाते हैं चुगा छीन हर।।


कैसे अपनी

जान बचाएँ

देखो तो जन- जनी छली है।


सास बहू को

नहीं समझती

पुत्रवधू भी बेटी जैसी।

निकल पड़ी

कमियाँ ही खोजे

करती उसकी ऐसी - तैसी।।


मैं गृहस्वामिनि

तू बाहर की

यही सोच घर देश-गली है।


हो विभाग

सरकारी कोई

थाना या कि कोतवाली हो।

बूटों तले

कुचलते छोटे

जैसे मच्छर की नाली हो।।


नाखूनों के 

बीच जुएँ - सी

नियति मानवों की छिछली है।


शुभमस्तु !


04.06.2024●2.45 आ०मा०

चार जून आ गई ! [बालगीत ]

 257/2024

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'



चार   जून  आ  गई।

गाँव  नगर  छा  गई।।


ऊँट किधर  सो रहा।

करवटों  में खो रहा।।

अजब गजब ढा गई।

चार   जून   आ  गई।


जाने  कब उठे   यह।

बोझ पीठ पर दुसह।।

शांति  सुख  खा गई।

चार   जून   आ गई।।


कैसा  ये    खुमार   है।

लगे    गया   हार   है।।

मंजिलों को   पा  गई।

चार   जून   आ   गई।।


कितने  डग  पार   है?

जनमत     दुलार   है।।

आम  जन  लुभा गई।

चार  जून   आ    गई।।


नींद   नहीं    रात  को।

समझें कब  बात को।।

खाज -  सी खुजा गई।

चार  जून  आ     गई।।


लगता  नहीं   घाम  है।

जपें    राम  -  राम  है।।

अटकलें    नई -  नई ।।

चार  जून    आ   गई।।


ऊँट     जागने    लगा।

करवटें   लेने    जगा।।

खुशी  नई     छा  गई।

चार  जून    आ    गई।।


'शुभम्' मोबाइल  खोल।

बज   रहे    देख   ढोल।।

बढ़    रही     है    दंगई।

चार  जून     आ   गई।।


शुभमस्तु !


03.06.2024●3.00प०मा०

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छुट्टियाँ [चौपाई]

 256/2024

              


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चलो    छुट्टियाँ    वहाँ     मनाएँ।

जहाँ  शांति से   हम  रह   पाएँ।।

गर्मी   हुई    तेज    अति   भारी।

यात्रा    की     अपनी    लाचारी।


किसे  छुट्टियाँ   सदा   न  भातीं।

करता श्रम  उसको  ललचातीं।।

पढ़ने   वाले   या   किसान   हों।

सीमा  पर   लड़ते  जवान    हों।।


करें      नौकरी      या    मजदूरी।

मिलें    छुट्टियाँ   उनको      पूरी।।

तन थकता तो  मन   भी थकता।

अनथक  कैसे   मग   में चलता।।


 गर्म    मशीनें     भी    हो   जाती।

श्रम   क्षमता    उनकी   मुरझाती।।

उन्हें  रोक  कर    शीतल   करना।

थकन मशीनी  को  नित    हरना।।


श्रम   क्षमता    छुट्टियाँ   बढ़ातीं।

नई  चेतना    तन    में     लातीं।।

कर्मशील    कोई    भी   कितना।

सभी  थकित हों करता जितना।।


मेले     ब्याह    पर्व    हैं    आते।

किसे नहीं वे     खूब     रिझाते।।

इसी      बहाने     छुट्टी       लेते।

काम  सभी   हम   निबटा   देते।।


'शुभम्'   चलो     छुट्टियाँ   कराएँ।

मात -  पिता   सँग      घूमें  आएँ।।

खेलें -  कूदें      मौज       मनाएँ।

नैनीताल     घूम      कर    आएँ।।


शुभमस्तु !


03.06.2024●10.45आ०मा०

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सोमवार, 3 जून 2024

पाँच वर्ष के बाद में [दोहा गीतिका]

 255/2024

       


नेताजी   करते    नहीं, जन जनता से  प्यार।

आता  समय  चुनाव  का,बाँटें  प्यार उधार।।


नेतागण    चाहें   नहीं,  करना  पूर्ण विकास,

कौन   उन्हें  पूछे  भला ,खोल घरों के  द्वार।


पाँच    वर्ष   के  बाद   में, आता   है मतदान,

सत्ता    पाने    के   लिए, टपके सबकी  लार।


राशन  बिजली  तेल  के, आश्वसन  दें   नित्य,

बना   निकम्मा   देश  को,वांछित है गलहार।


जनता   को  सुविधा  नहीं, भोगे कष्ट  अनेक,

नेतागण     परितृप्त   हैं,  छाया  रहे खुमार।


चमचे    गुर्गे  मौज  में, खाते  मक्खन   क्रीम,

चूसे   जाते   आम  ही, डाल  करों  के   भार।


'शुभम्' देश  की  भक्ति का,अंश नहीं  लवलेश,

प्रजातंत्र   में    ही   प्रजा,  का   नित बंटाढार।


   शुभमस्तु!

03.06.2024●5.15आ०मा०

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आया समय चुनाव का [ सजल ]

 254/2024

        

समांत :  आर

पदांत  :  अपदांत

मात्राभार : 24.

मात्रा पतन: शून्य


नेताजी   करते    नहीं, जन जनता से  प्यार।

आता  समय  चुनाव  का,बाँटें  प्यार उधार।।


नेतागण    चाहें   नहीं,  करना  पूर्ण विकास।

कौन   उन्हें  पूछे  भला ,खोल घरों के  द्वार।।


पाँच    वर्ष   के  बाद   में, आता   है मतदान।

सत्ता    पाने    के   लिए, टपके सबकी  लार।।


राशन  बिजली  तेल  के, आश्वसन  दें   नित्य।

बना   निकम्मा   देश  को,वांछित है गलहार।।


जनता   को  सुविधा  नहीं, भोगे कष्ट  अनेक।

नेतागण     परितृप्त   हैं,  छाया  रहे खुमार।।


चमचे    गुर्गे  मौज  में, खाते  मक्खन   क्रीम।

चूसे   जाते   आम  ही, डाल  करों  के   भार।।


'शुभम्' देश  की  भक्ति का,अंश नहीं  लवलेश।

प्रजातंत्र   में    ही   प्रजा,  का   नित बंटाढार।।


शुभमस्तु!

03.06.2024●5.15आ०मा०

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रविवार, 2 जून 2024

मौनव्रत का संलयन [व्यंग्य]

 253/2024 



 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 आप अपनी जानें।मैं तो अपनी जानता भी हूँ और पहचानता भी हूँ।वैसे अपनी - अपनी करनी सबको जाननी चाहिए। अब आप नहीं जानते तो कोई क्या करे? अपनी जानने के बाद ही मैं यह कहने का साहस कर पाया हूँ कि मैं एक प्राचीन मौनव्रती हूँ।यह मौन व्रत कोई बनावटी या अखबारी मौन व्रत नहीं है कि ध्वनि प्रसारक यंत्र लगाकर इसका विज्ञापन किया जाए! यह मौन व्रत तो मेरे जन्म काल से ही मेरे साथ आया है और जीवन के अंत के साथ स्थाई मौनव्रत में बदल जाना है।आप में भला कौन -कौन पहचाना है?कि यह मौनव्रत बहुत पुराना है। 

  जब मैं पहली -पहली बार इस धरा धाम में धरती माँ की गोद में आया तो प्रकृति ने मेरा नौ मास का अंतः मौन व्रत तुड़वाया।जननी की कुक्षि में मैं नौ माह से मौन ही तो प्रभु भक्ति में लीन था। वह दीर्घकालिक मौन व्रत तभी तो टूटा,जब 'हुआ -हुआ' के मेरे क्रंदन ने बाहर आने का सुख लूटा। जन्म के बाद भी मैं प्रायः मौन ही रहता, जब लगती भूख प्यास तो रुदन की वाणी में अपनी बात कहता।वरना मौन पड़ा-पड़ा अड़ा रहता। अधिकांश समय शयन में मौन ही तो रहना। कभी किसी से यह नहीं कहना कि मैं बहुत बड़ी तपस्या कर रहा हूँ।खबर अख़बार में छपवा दो अथवा टी वी पर फोटो वीडियो प्रसारित करा दो। 

  तब से आज तक मौन रहकर मौन व्रत साधना ही तो कर रहा हूँ।यह मौन तो जैसे जीवन की श्वास है।इसके बिना भी क्या जीवन है,जीवन का प्रकाश है? तब से आज तक मैंने अपने मौन के प्रचार- प्रसार के लिए न कैमरे लगवाए और नहीं देश - दुनिया में घोड़े दौड़ाए कि जाओ कि एक अकिंचन भी मौन व्रत कर रहा है। लोग जानें कि यह क्या विलक्षण हो रहा है,जो आज तक किसी ने नहीं किया।पर वास्तविकता यही है कि आप सब भी तो यही कर रहे हैं।पर अपने मौन व्रत का डंका बजाने से डर रहे हैं। क्यों ?क्यों?क्यों ?वह इसलिए कि यह तो जीव और जीवन की प्रकृति है। जीवन का अनिवार्य अंग।इसके बिना तो है जीवन का रंग में भंग। जब जब भी रात या दिन में निद्रा देवी की गोद में सोया, मौन व्रत से ही अपना मुख और तन धोया।कम से कम नित्य प्रति दस- दस घण्टे।जब की गई साहित्य- साधना या एकांत- साधना तब भी समय के वे क्षण मौन में ही बंटे।एक-एक महीने में तीन सौ घण्टे की मौन साधना। इस प्रकार प्रति वर्ष 3600 घण्टे की निराहार मौन- साधना।365 दिन में 150 दिन की व्रत- साधना।

      इस मौन व्रत साधना के लिए कोई आडम्बर नहीं करना। चाहे आप दिगम्बर हों या सांबर साधना तो हो रही है और बकायदे हो रही है।जब तक जीव और जीवन का अंतिम क्षण नहीं आ जाता,तभी तक इस आनन पर बोल हैं।फिर तो मौन ही मौन है। स्थाई मौन है।सूक्ष्म शरीर कुछ भी करे,कौन जानता है? चिल्लाए कोई प्रेत या रहे मौन ,सुने भी कौन ?  आज के नए जमाने के आदमी को देखिए। मौन का भी प्रचार है, जोर शोर से प्रसार है।जैसे इनके ही मौन की दुनिया में बहार है।मौन तो शक्ति अर्जन का स्रोत है। अनिवार्य स्रोत है। सबके लिए खुल्लमखुल्ला उपांत है।हर एक जीव ही इस विषय में शांत है। परन्तु विज्ञापन जीवी ही कुछ उद्भ्रांत है।जो खबर बनने के लिए विकल - प्रांत है। 

   आइए ! हम सब भी अपने मौन को पहचानें। मौन को मौन से अधिक कुछ नहीं मानें।जितनी रह सके सीमा में ,उतनी ही तानें।सहजता में ढोंग क्या !आडम्बर क्या !दिखावा भी क्या ?तोल- तोल कर बोलना है। झूठ का जहर नहीं घोलना है। शेष समय मौन ही मौन की आराधना है।इसीलिए तो शयन की अनिवार्य साधना है। जितना जागरण उतना ही शयन।बन्द करें वाणी और दोनों नयन।जीवन में प्राकृतिक है मौनव्रत का चयन,संलयन। 

शुभमस्तु !

 02.06.2024●4.00आ०मा० 


 ●●●ा

मेरा मौनव्रत [ दोहा ]

 252/2024

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मौनव्रती  विख्यात मैं,  करता  व्रत प्रति  मास।

तीन शतक  बनते  सदा, मत समझें उपहास।।

नहीं   कैमरों   को सजा,  करता   मैं व्रत    मौन।

टीबी   या  अखबार  में,  जान सका है   कौन??


बारह   मासी   मौन  व्रत, का  है पावन   भाव।

घर   वाले  भी  जानते,  मुझे  मौन का    चाव।।

नहीं    हिमालय    चाहिए, या    कोई  एकांत।

दिनचर्या   मम   मौनव्रत,   मानें  मत अरिहंत ।।


नौ  से  प्रातः  पांच  तक, रहता  मैं नित  मौन।

दिन  में  घण्टे  चार  - छः, मौन रहूँ निज भौन।।

दिनचर्या    का  अंग  है,  मेरा  यह व्रत   मौन।। 

अब  ज्ञापित  करना  वृथा,मधुर या कि हो लौन।।


मुझे    न   कोई   होड़  है,करता  नहीं  प्रचार।

मौन   वाक   का  मौन  व्रत, कहने से  बेकार।।

वीणावादिनि   का   हुआ, मुझे  सूक्ष्म  आदेश।

पुत्र   मौनव्रत  व्यक्त   कर, धरे  बिना  नव वेश।।


तथाकथित की  बात  क्या,छींकें खाँसें  नित्य।

अखबारों   में   जा    छपे, बतलायें औचित्य।।

जैसे  लेते    साँस    नित, वैसे   ही व्रत   मौन।

शक्ति  बढ़ाता भक्ति की, चले श्वास का पौन।।


'शुभम्' शयन  में  मौन  रह,करता कवि  संधान।

बात  नहीं  करता  कभी,कविता हित  अनुपान।।


शुभमस्तु !


02.06.2024●2.00आ०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...