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©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
भोर हुआ सूरज उठा, गगनांचल की ओर।
जड़ - चेतन जलने लगे, छू धरती के छोर।।
लगता सूरज क्रोध में, तप्त धरा जल वायु।
अंबर उगले आग ही, घटे जीव की आयु।।
गौरैया व्याकुल बड़ी, मिली न जल की बूँद।
पड़ी नीड़ में दुःख में, चोंच नयन को मूँद।।
लटका अपनी जीभ को,बाहर अपनी श्वान।
हाँफ रहे हैं छान में,करें कहीं जलपान।।
धरती पर पड़ता नहीं, बिना उपानह पाँव।
बैठा वट की छाँव में, तप्त समूचा गाँव।।
चलो तरावट के लिए, खाएँ हम तरबूज।
महक रहा है खेत में, देखो वह खरबूज।।
नीर बिना प्यासी धरा, मरे हजारों जीव।
कहाँ छिपे बादल घने, चातक रटता पीव।।
सूख रहे तालाब भी, निकल रहे हैं प्राण।
व्यकुल मछली जीव जल, कौन करेगा त्राण।।
भैंस गाय व्याकुल सभी, हाँफ रहे हैं ढोर।
शूकर लोटे पंक में, छिपे छाँव में मोर।।
कोई शर्बत पी रहा, कोई लस्सी छान।
गर्मी का परिहार कर, करे जेठ का मान।।
षट् ऋतुओं के देश में,तप का एक प्रतीक।
अपना एक निदाघ है, उत्तम पावन नीक।।
शुभमस्तु !
05.06.2024● 6.30आ०मा०
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