258/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
रौंदा अपने
अधीनस्थ को
कैसी बेढब रीति चली है।
छोटी मछली
को खा जातीं
बड़ी मछलियाँ बीन -बीन कर।
कुचले जाते
नित गरीब ही
खा जाते हैं चुगा छीन हर।।
कैसे अपनी
जान बचाएँ
देखो तो जन- जनी छली है।
सास बहू को
नहीं समझती
पुत्रवधू भी बेटी जैसी।
निकल पड़ी
कमियाँ ही खोजे
करती उसकी ऐसी - तैसी।।
मैं गृहस्वामिनि
तू बाहर की
यही सोच घर देश-गली है।
हो विभाग
सरकारी कोई
थाना या कि कोतवाली हो।
बूटों तले
कुचलते छोटे
जैसे मच्छर की नाली हो।।
नाखूनों के
बीच जुएँ - सी
नियति मानवों की छिछली है।
शुभमस्तु !
04.06.2024●2.45 आ०मा०
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