बुधवार, 12 जून 2024

कैसी बेढब रीति चली है! [ गीत ]

 258/2024


    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रौंदा अपने

अधीनस्थ को

कैसी बेढब रीति चली है।


छोटी मछली 

को खा जातीं

बड़ी मछलियाँ बीन -बीन कर।

कुचले जाते

नित गरीब ही

खा जाते हैं चुगा छीन हर।।


कैसे अपनी

जान बचाएँ

देखो तो जन- जनी छली है।


सास बहू को

नहीं समझती

पुत्रवधू भी बेटी जैसी।

निकल पड़ी

कमियाँ ही खोजे

करती उसकी ऐसी - तैसी।।


मैं गृहस्वामिनि

तू बाहर की

यही सोच घर देश-गली है।


हो विभाग

सरकारी कोई

थाना या कि कोतवाली हो।

बूटों तले

कुचलते छोटे

जैसे मच्छर की नाली हो।।


नाखूनों के 

बीच जुएँ - सी

नियति मानवों की छिछली है।


शुभमस्तु !


04.06.2024●2.45 आ०मा०

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