शनिवार, 29 जून 2024

मैल का मेला [ व्यंग्य ]

 292/2024 


 

 © व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 वह तो पहले से ही बहुत अधिक कुख्यात थी,किन्तु अब तो मर्यादा ही टूट रही है।उसका मैलापन दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है।इस बढ़ते हुए मैलेपन के कुछ कारण अवश्य हैं। आदमी दिन प्रति दिन नीति,धर्म,मर्यादा,चरित्र और विनम्रता से विमुख होता चला जा रहा है।तो फिर राजनीति से ही यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह दूध की धुली बनी रहे।अंततः उसमें जो आदमी है ,वह भी तो इसी धरती और समाज की देन है।धरती पर बढ़ता हुआ कचरा और आदमी में बढ़ती हुई अपवित्रता क्या कुछ नहीं कर सकती। 

 देश और समाज में निरन्तर बढ़ते हुए सपोले और उनके पालनहार नहीं चाहते कि सर्वत्र खुशहाली हो। दूसरे को त्रास देने में आनन्दानुभूति करने वालों को इसी से तुष्टि मिल रही है।परपीड़क आनंद में हैं।आमजन और मध्यवर्ग उत्पीड़ित और भयाक्रांत है।जहाँ भी देखिए ,वहीं परपीड़ा का वातावरण जन्य दूषण फैला हुआ है।चारों ओर असंतोष और विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं।मतदान और जीवन यापन मात्र औपचारिकता बनकर रह गए हैं। कहीं भी किसी की कोई रुचि नहीं है।मन के अंदर और बाहर विरोध और असंतोष की ज्वालायें धधक रही हैं। 

 सबको ऊँची कुर्सी चाहिए।निरंतर जारी कुर्सी-दौड़ में बड़े- बड़े महारथी शामिल हैं।जिनको कभी दरी का बिछौना भी सुलभ नहीं था,वे कुर्सी - दौड़ में सबको पीछे खदेड़ना चाहते हैं।साम,दाम,दंड और भेद :इनमें से कोई भी नीति या अनीति को अपनाने में वे येन केन प्रकारेण संलग्न हैं।नैतिकता को खूँटी पर टाँग दिया गया है,अपनी टाँग आगे लाने के प्रयास में दूसरे की टाँग में टंगड़ी मारकर गिरा देना ही उनका धर्म है।आज की राजनीति का यही मर्म है।चारों ओर का वातावरण गर्म है।आज का क्या नेता क्या चमचा ,सब कोई इतना बेशर्म है कि दाना डाल के मुर्गी फँसाने में वह बेहद नर्म है। 

 दानेबाजी और नारों का बाजार गर्म है।नामियों को नामे से लगाव है तो किसी को प्यारा किसी का चर्म है। जनता विकास की गंगा में नहीं, वैतरणी में गोते लगा रही है।चमचों की चासनी उन्हें निरंतर जगा रही है। मैल से मैल कभी साफ भी हुआ है ? जनता के लिए माध्यम वर्ग के लिए इधर आग तो उधर कुँआ है।जो पहले कभी न हुआ वह वर्तमान में हुआ है।लोगों के लिए देश ,देश नहीं मात्र एक जुआ है।मध्यम वर्ग की तो बस यही दुआ है कि सब कुछ ठीक - ठाक चले।मैलापन जो आया है ,वह शीघ्र ही टले।पर उसे चैन से कब रहने देते हैं ये दिलजले। रात - दिन मुश्किलें लग रही हैं उनके गले।सुख चैन की वर्षा हो न हो, वे जाते रहेंगे अनवरत दले।

 सबको जनता से शिकायत है,किन्तु जनता की शिकायत सुनने वाला कोई तो नहीं। जनता की वेदना सुनने वाला कहीं कोई तो नहीं।वह तो आम है न ? जिसे चुसना है। बराबर चुसना है।ऊँची कुर्सी पर कोई भी बैठा हो,उसे रसातल में धँसना है। चैन की वंशी बजाना उसका सपना है।गोल-गोल रोटी के परित: उसे घूमना है।बनावटी हँसी हँसते हुए उसे झूमना है।काल्पनिक सफलता के इर्द - गिर्द कोमल कपोल चूमना है।मन ही मैले हैं,तो बगबगे वसन पहनने से क्या स्वच्छता आ जायेगी।दूर के ढोल बड़े सुहावने हैं।पर पता है उसमें भी पोल है!छल -छद्मों की किलोल है।

 वक्ताओं की वाणी का बोलबाला है।झूठ दौड़ रहा हेलीकॉप्टर पर और साँच का मुँह काला है।लगा गया अटूट ताला है।गली-गली, बस्ती -बस्ती में बहता हुआ जो नाला है, उसी के बाहर महक रहा 'गरम मसाला' है।आँखों मे हया नहीं, जुबाँ पर सुदृढ़ ताला है।क्या नर और क्या नारी ! सब जगह फैली मैल की बीमारी!दूर के ढोल बड़े ही सुहाने हैं। नेताओं को चमकाने अपने - अपने पैमाने हैं।'अंधभक्त' उनके अंध प्रचार में दीवाने हैं। उनकी प्रशस्ति में गा रहे तरन्नुम भरे गाने हैं। अपनी हेय करनी पर क्या कभी वे लजाने हैं? उन्हें मिल ही रहे स्वर्ण निर्मित दाने हैं।पर एक दिन दूध का दूध पानी का पानी हो ही जाता है। जो अब तक इतराता सतराता था, उसे अतीत और औकात याद आ जाता है।यहाँ वहाँ मैल का मेला है। नेताओं के पीछे भेड़ों का रेला है। गरीब के हाथों में रोज का हथठेला है। उधर नोटों की बरसात ,इधर न कौड़ी न धेला है। अँगूठा छापों का आई ए एस चेला है।इधर भी और उधर भी मैला ही मैला है।इधर पॉली थैली पर भी जुमार्ना उधर सोने भरा थैला है। 

 शुभमस्तु !

 29.06.2024●1.00प०मा० 

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