253/2024
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
आप अपनी जानें।मैं तो अपनी जानता भी हूँ और पहचानता भी हूँ।वैसे अपनी - अपनी करनी सबको जाननी चाहिए। अब आप नहीं जानते तो कोई क्या करे? अपनी जानने के बाद ही मैं यह कहने का साहस कर पाया हूँ कि मैं एक प्राचीन मौनव्रती हूँ।यह मौन व्रत कोई बनावटी या अखबारी मौन व्रत नहीं है कि ध्वनि प्रसारक यंत्र लगाकर इसका विज्ञापन किया जाए! यह मौन व्रत तो मेरे जन्म काल से ही मेरे साथ आया है और जीवन के अंत के साथ स्थाई मौनव्रत में बदल जाना है।आप में भला कौन -कौन पहचाना है?कि यह मौनव्रत बहुत पुराना है।
जब मैं पहली -पहली बार इस धरा धाम में धरती माँ की गोद में आया तो प्रकृति ने मेरा नौ मास का अंतः मौन व्रत तुड़वाया।जननी की कुक्षि में मैं नौ माह से मौन ही तो प्रभु भक्ति में लीन था। वह दीर्घकालिक मौन व्रत तभी तो टूटा,जब 'हुआ -हुआ' के मेरे क्रंदन ने बाहर आने का सुख लूटा। जन्म के बाद भी मैं प्रायः मौन ही रहता, जब लगती भूख प्यास तो रुदन की वाणी में अपनी बात कहता।वरना मौन पड़ा-पड़ा अड़ा रहता। अधिकांश समय शयन में मौन ही तो रहना। कभी किसी से यह नहीं कहना कि मैं बहुत बड़ी तपस्या कर रहा हूँ।खबर अख़बार में छपवा दो अथवा टी वी पर फोटो वीडियो प्रसारित करा दो।
तब से आज तक मौन रहकर मौन व्रत साधना ही तो कर रहा हूँ।यह मौन तो जैसे जीवन की श्वास है।इसके बिना भी क्या जीवन है,जीवन का प्रकाश है? तब से आज तक मैंने अपने मौन के प्रचार- प्रसार के लिए न कैमरे लगवाए और नहीं देश - दुनिया में घोड़े दौड़ाए कि जाओ कि एक अकिंचन भी मौन व्रत कर रहा है। लोग जानें कि यह क्या विलक्षण हो रहा है,जो आज तक किसी ने नहीं किया।पर वास्तविकता यही है कि आप सब भी तो यही कर रहे हैं।पर अपने मौन व्रत का डंका बजाने से डर रहे हैं। क्यों ?क्यों?क्यों ?वह इसलिए कि यह तो जीव और जीवन की प्रकृति है। जीवन का अनिवार्य अंग।इसके बिना तो है जीवन का रंग में भंग। जब जब भी रात या दिन में निद्रा देवी की गोद में सोया, मौन व्रत से ही अपना मुख और तन धोया।कम से कम नित्य प्रति दस- दस घण्टे।जब की गई साहित्य- साधना या एकांत- साधना तब भी समय के वे क्षण मौन में ही बंटे।एक-एक महीने में तीन सौ घण्टे की मौन साधना। इस प्रकार प्रति वर्ष 3600 घण्टे की निराहार मौन- साधना।365 दिन में 150 दिन की व्रत- साधना।
इस मौन व्रत साधना के लिए कोई आडम्बर नहीं करना। चाहे आप दिगम्बर हों या सांबर साधना तो हो रही है और बकायदे हो रही है।जब तक जीव और जीवन का अंतिम क्षण नहीं आ जाता,तभी तक इस आनन पर बोल हैं।फिर तो मौन ही मौन है। स्थाई मौन है।सूक्ष्म शरीर कुछ भी करे,कौन जानता है? चिल्लाए कोई प्रेत या रहे मौन ,सुने भी कौन ? आज के नए जमाने के आदमी को देखिए। मौन का भी प्रचार है, जोर शोर से प्रसार है।जैसे इनके ही मौन की दुनिया में बहार है।मौन तो शक्ति अर्जन का स्रोत है। अनिवार्य स्रोत है। सबके लिए खुल्लमखुल्ला उपांत है।हर एक जीव ही इस विषय में शांत है। परन्तु विज्ञापन जीवी ही कुछ उद्भ्रांत है।जो खबर बनने के लिए विकल - प्रांत है।
आइए ! हम सब भी अपने मौन को पहचानें। मौन को मौन से अधिक कुछ नहीं मानें।जितनी रह सके सीमा में ,उतनी ही तानें।सहजता में ढोंग क्या !आडम्बर क्या !दिखावा भी क्या ?तोल- तोल कर बोलना है। झूठ का जहर नहीं घोलना है। शेष समय मौन ही मौन की आराधना है।इसीलिए तो शयन की अनिवार्य साधना है। जितना जागरण उतना ही शयन।बन्द करें वाणी और दोनों नयन।जीवन में प्राकृतिक है मौनव्रत का चयन,संलयन।
शुभमस्तु !
02.06.2024●4.00आ०मा०
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