284/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
तप कोई हो
सहज नहीं है,
तपता तपसी
और प्रभावित
होता अग - जग
तप की ज्वाला।
सूर्य देव भी
तपते निशिदिन
स्वाभाविक है
कष्ट जगत को,
तप का फल
सब मधुर चाहते
किंतु न
किंचित कष्ट चाहना।
कल जब
बरसेंगी अंबर से
नन्हीं -नन्हीं
जल की बूँदें,
नर -नारी
बालक युव जन सब
नौ - नौ बाँस
उछल कर कूदें।
प्रकृति का
यह कोप न समझें,
होना ही है
जो स्वाभाविक,
भावी समय
सुखद ही होगा,
यह जीवन संघर्ष
स्वतः है।
हार गया जो
चला गया वह
जीवन छोड़
अतीत बन गया,
जो जूझा
वह जीत गया है
जटिल प्रश्न यह
किसने बूझा?
आओ 'शुभम्'
साथ तपसी के
अपने तप का
साज सजा लें,
गर्मी सर्दी या वर्षा हो
सबके ही सब
साथ मजा लें,
तप की अपनी
ध्वजा उठा लें।
शुभमस्तु !
20.06.2024●2.15 प०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें