गुरुवार, 20 जून 2024

नई साड़ी ! [ व्यंग्य ]

 285/2024



 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 किसी कवि ने क्या खूब कहा है: 'लड़की वह अचार की मटकी,हाथ लगे कीड़े पड़ जाएं।' नारी की नाजुकता की यह पराकाष्ठा है।इससे भी आगे बढ़ें तो एक बात यह भी है कि साड़ी स्त्री की देह से छू जाने के बाद पुरानी हो जाती है ।तभी तो स्त्रियां अलमारी भरी रहने के बावजूद प्रायः यही कहती पाई जाती हैं कि उनके पास पहनने के लिए साड़ी ही नहीं है। शायद उसकी दैहिक अपवित्रता का यह बहुत बड़ा कारण है।इसलिए विवाह शादी या किसी उत्सवीय अवसर पर वे यही कहती हैं नई साड़ी हो तभी तो जाऊँ! और पुरुष का कोई वस्त्र कभी अशुद्ध नहीं होता और वह एक ही जोड़ी कुर्ता धोती या पेंट शर्ट को दसियों वर्ष खुशी - खुशी पहनता रहता है। बिना किसी शिकायत या ताने के। कितनी विडम्बना की स्थिति है? 

   हर अवसर पर नई साड़ी का मुद्दा घर परिवार और उसके पति के लिए चिंतनीय अवश्य है, किन्तु यदि राधा को नचवाना है तो नौ मन तेल का इंतजाम भी करना होगा।यदि नहीं करते तो समझ लीजिए कि क्या होगा , घर का गैस का चूल्हा भी नहीं जलेगा। और जब चूल्हा नहीं जलेगा तो दूल्हा भी आगे नहीं चलेगा।नित नवीनता का नारी चिंतन पुरुष वर्ग के लिए कितना भी महँगा पड़ जाए ,तो पड़ता रहे।कोई कुछ कहे तो कहता रहे ,पर यह तो नारी - संविधान की धारा 'त्रिया चरित्रम : नारी अपवित्रम' में कनकाक्षरों में खचित किया हुआ है;जिसे मिटाया नहीं जा सकता।

   यदि नारी के इस साड़ी प्रेम की तह में जाएं तो ज्ञात होता है कि इसकी असली जड़ तो पुरुष के मष्तिष्क में ही मिलेगी। अपनी आँखें सदा शीतल बनाए रखने के लिए उसने स्वयं ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारी है।विवाह के बावन वसंत व्यतीत होने के बाद भी वह पत्नी को षोडशी ही देखना चाहता है।इसीलिए कहीं भी अपनी जन्मतिथि लिखवाते समय वह तारीख महीना और सन पूरे- पूरे लिखवाता है। यह अलग बात है कि भले ही चार छ:साल कम लिखवा दे।किन्तु नारियों को यह संस्कार की घुट्टी में घिस - घिस कर पिला दिया जाता है कि कभी किसी को अपनी सही -सही उम्र मत बता देना अन्यथा तुम्हें बुढ़िया करार दिया जाएगा।स्कूल में नाम लिखवाते समय यदि पूरी जन्मतिथि लिखवाने की अनिवार्यता नहीं होती तो वहाँ भी लिखवा दिया जाता :जन्मतिथि -20 जून। अरे ! वर्ष और महीने से क्या लेना - देना ? बाबा तुलसीदास जी की चौपाई के 'अनृत' शब्द की सार्थकता की यहाँ पुष्टि हो जाती है : (साहस, अनृत, चपलता ,माया) । यदि विचार किया जाए तो वे कुछ गलत भी नहीं करतीं। जब जन्मतिथि पूछी गई है तो तारीख ही तो लिखनी चाहिए। तिथि में मास और वर्ष तो आते ही नहीं हैं।इसलिए वे उन्हें अनावश्यक रूप से लिखें ही क्यों ? इसीलिए यह भी एक नारी सूत्र बन गया कि कभी किसी स्त्री की उम्र नहीं पूछनी चाहिए। यह असभ्यता की श्रेणी में गिना जाता है। 

    स्त्री को आसमान पर चढ़ाए रखने में बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। अपने स्वार्थ की पूर्ति के कामी पुरुष ने नारी को सोने की जंजीरों में जकड़ दिया।उसे फूल,गुलाब,चंपा, चमेंली,रात की रानी की उपमाएँ देकर कहाँ से कहाँ ले जाकर विराजमान कर दिया। वह उसकी झील जैसी आँखों की गहराई में आकंठ डूब ही गया : (झील-सी गहरी आंखें चाँद-सा रौशन चेहरा)। गाल गाल न रहे,गुलाब हो गए।गर्दन सुराही हो गई। क्षीण कटि मृणाल हो गई। जाँघें भी जाँघें ही कब रह सकीं, वे कदली स्तम्भ बन गईं।केश सघन मेघ में तब्दील हो गए। कुल मिलाकर स्त्री, स्त्री नहीं रही , वह फूल पत्तियों का सचल बागीचा ही बन गई। जिसमें झील भी है,फूल पत्तियां ,लताएँ ,झुरमुट चाँद - सभी कुछ तो है। यदि नहीं है ,तो बस वह स्त्री नहीं है। 

    सोचिए नारी के पुरुष द्वारा इतने नाज नखरे उठाए जाएँगे तो उसे क्या पड़ी कि वह एक साड़ी को एक बार देह से छू भर जाने के बाद उसे पुरानी न कहे ? अब लो ! और झेलो! चाहे उसके अरमानों से खेलो! अब कहा है कि एक भी साड़ी नहीं है ,तो एक और ले लो! अब ये अलग बात है कि साड़ी- सेंटर में मिलने वाली हर साड़ी पुरानी ही होगी। क्योंकि वह भी तुम्हारी ही किसी अन्य बहिन की देह से छुई गईं होगी। तुम्हारे लिए नई है, पर उतरन ही होगी। 

 शुभमस्तु ! 

 20.06.2024● 8.30 प० मा०

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