276/2024
[देश,धर्म,राजनीति,सत्य ,समाज]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब में एक
इसी देश में जन्म लें, रहकर खाएँ अन्न।
गद्दारी उससे करें, देख - देख हम सन्न।।
जो कृतघ्न इस देश के, विषधर काले नाग।
सावधान उनसे रहें, सुप्त मनुज तू जाग।।
धर्म बिना धरती नहीं, कर्म बिना क्या व्यक्ति।
धारण हम उसको करें,जन-जन में अनुरक्ति।।
धुरी धर्म की सत्य पर, आधारित हो नित्य।
मानवता मंगलमयी, जिसका हो औचित्य।।
राजनीति से छद्म का, सीधा सा सम्बंध।
आधारित जो झूठ पर, बढ़ा रही दुर्गंध।।
राजनीति के खेत में, नेता मेवाखोर।
छाछ नहीं जन को मिले, चाटें मक्खन चोर।।
नेताओं के राज में, नहीं सत्य की बूझ।
जनता मानो भेड़ हो, नहीं रहा कुछ सूझ।।
सत्य- सत्य चिल्ल्ला रहे, किंतु सत्य से दूर।
झूठ गले में हार - सा, सच है चकनाचूर।।
भेड़चाल में चल रहा,विघटित मनुज समाज।
खंडित जन की एकता, नेता के सिर ताज।।
सब अपने मन की करें,देखें हित न समाज।
स्वार्थलिप्त नर-नारियाँ, खुजा रहे निज खाज।।
एक में सब
सत्य नहीं अब धर्म में,राजनीति ज्यों खाज।
धर्म हुआ लाचार - सा,जन ज्यों भेड़ - समाज।।
शुभमस्तु !
18.06.2024● 11.00प०मा०
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