268/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
टूट जाने के लिए ही
तो होती हैं
कुछ चीजें,
जिनका टूट जाना ही
श्रेयस्कर है,
जन हित में
निज हित हैं,
वरना आदमी रावण
हो जाता है।
सोने की लंका भी
ढह गई
निर्वंश हुआ,
मिला क्या !
अब पछताए
होता क्या,
जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।
धृतराष्ट्र हों
कि दुर्योधन
सबका वही हस्र हुआ,
स्वयं ही खोदी खाई
स्वयं ही बनाया कुँआ!
होना था वही हुआ,
अहंकार नष्ट हुआ।
समय कभी
किसी को
क्षमा नहीं करता,
आदमी दुष्कर्मों से
क्यों नहीं डरता?
अंततः समय कुछ
कर के ही गुजरता!
विनम्रता में बहुत
बड़ी सीख छिपी है,
वही नहीं तो
आदमी भी
आदमी नहीं है,
सूखी लकड़ियां
प्रायः टूट जाती हैं 'शुभम्',
वाणी में नम्रता ही
अनिवार्य है,
यह भी मानवता का
एक पावन सुकार्य है।
शुभमस्तु !
14.06.2024● 6.45आ०मा०
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