गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

चोरी का गुड़ [अतुकांतिका]

 474/2024

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गुड़ - गुड़ की

गुडविल ही न्यारी,

खिले अधर की

कलिका क्यारी,

चोरी करने में भी

अति श्रम लगता है।


नकली डाक्टर

अस्पताल भी,

सीख लिए गुर

भ्रमर जाल भी,

बिना पढ़े जब

नोट छप रहे,

शिक्षा सब बेकार।


डिग्रीधारी

बैठे टापें,

नकली से वे

असली छापें,

मेरा देश महान।


छापा पड़े

छिपें वे बिल में,

छपे हुए 

जो रक्खे घर में,

देकर बेड़ा पार,

क्या कर ले सरकार?


'शुभम्' सत्य 

जिसने भी बोला,

कहते उसने ही

विष घोला,

पकड़ा गया

चोर का झोला,

तीन ढाक के पात।


शुभमस्तु !


17.10.2024●2.45 प०मा०

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बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

प्रेम का प्रसाद ? [ व्यंग्य ]



473/2024 

 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 प्रेम ,प्रेम है। प्रेम कोई प्रसाद तो है नहीं कि जिस - तिस को बाँटते उछालते रहा जाए।यह तो केवल और केवल अपनों के लिए है। अपनों की परिधि में जो भी आते हैं,वे सभी प्रेम के पाने के पात्र हैं।यह सबके लिए नहीं है। आम जन के लिए भी नहीं है।अपनों का घेरा कोई इतना विस्तृत तो हो नहीं सकता कि इसकी कुंडली में सारे ब्रह्मांड को लपेट लिया जाए।अब इस सीमा को सुनिश्चत करना आवश्यक हो गया है कि किस -किस को प्रेम किया जाए और किसको इससे वंचित रखा जाए।जब किसी को इससे वंचित रखा जाएगा तो वंचितों को किंचित तो देना ही होगा ,और वह होगी घृणा,एकमात्र घृणा। 

  जब बात प्रेम को सीमाबद्ध करने की आई है ;तो उसका भी अवलोकन कर लिया जाए।पहले ही कहा गया है कि यह केवल अपनों के लिए है।अपनों की सीमा में सबसे निकट और विकट कोई है वह है अपनी संतान।माता -पिता अपनी संतान से प्रेम करते हैं,यह जगज़ाहिर है।क्योंकि वे उनके रक्त सम्बन्ध में आबद्ध हैं। अपने बच्चों को छोड़कर दूसरों के बच्चों को दूसरा ही समझा जाए।हाँ,प्रेम का नाटक करने में कोई आपत्ति नहीं है।किंतु उन सबसे प्रेम तो नहीं किया जा सकता। इसके बाद बारी आती है स्वजातियों की।अपनी जाति वालों से प्रेम करते हुए ऐसे सिमट जाओ ;जैसे कुंए का मेंढक अपनी चार - छः फुट की दीवारों के अंधकूप को ही अपनी सारी दुनिया मान बैठता है।अन्य जातियों के लोगों से घृणा करो।उन्हें अपने समक्ष तुच्छ, हेय और गुण हीन सिद्ध करने में लगे रहो।अपने आप मियां मिट्ठू बने रहो,बनते रहो।अन्य जातियों को अपनी जाति के समक्ष नीची सिद्ध करते रहने में जिंदगी गुजार दो। भूल से भी उनसे प्रेम मत कर लेना। 

  अन्य मज़हब और धर्मावलंबियों को तो कभी प्रेम करना ही नहीं है। उनसे तो घृणा ही करनी है। मौके बे मौके उन पर ईंट- पत्थर बरसाओ, बम बरसाओ, गोलाबारी करो,किंतु प्रेम करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।धर्म बने ही घृणा फैलाने के लिए हैं। यदि स्वधर्मी से प्रेम किया तो क्या किया ? उससे घृणा ही करनी है। यही सच्चा मनुष्य धर्म है। 

   शैशवावस्था में माँ स्व -शिशु को स्व-स्तन से चिपकाकर प्रेम करती है। शिशु भी माँ को उतना ही प्रेम करता है।वही पिता से प्रेम करना सिखाती है।तो पिता भी संतति का प्रेम पात्र बन जाता है।धीरे -धीरे प्रेम का दायरा बढ़ता है तो भाई -बहन,चाचा -चाची आदि भी उसमें घुसा लिए जाते हैं।ये सभी स्वजातीय भी हैं और स्वरक्तीय भी हैं।इसलिए इनसे इनमें प्रेम का अंकुर प्रस्फुटित होना भी जरूरी है।जब वही शिशु बालक, बाला भोलाभाला होता है ,तो प्रेम पल्लवन फूलने - फलने लगता है। किशोर/किशोरी होते ही विपरीत लिंगी के साथ जब प्रेम का विस्तार होने लगता है ,फिर तो जाति धर्म और मज़हब की दीवारें भी टूट जाती हैं।यह भी प्रेम का एक रूप है।जिसे गदहपचीसी की उम्र भी कहा जाता है।यहाँ आने के बाद कूँआ ,बाबली,खाई, गड्ढा, पोखर कुछ भी दिखना बंद हो जाता है। प्रेम विस्तार जो पा रहा है। 

  प्रेम आत्मकेंद्रित है तो घृणा का संसार में विस्तार है। जहाँ प्रेम हो या न हो ,घृणा अवश्य मिलेगी।ये बहुत सारी जातियाँ,मज़हब,धर्म इसके विस्तार हैं।यहाँ घृणा की तेज रफ्तार है।आदमी घृणा से नहीं प्रेम से बेजार है।घृणा तो कहीं भी मिल जाएगी।उसे परमात्मा न समझें। प्रेम तो जमा हुआ घी है,घृणा तालाब में पड़ी हुई तेल की बूँद है,जो निरन्तर फैलती ही फैलती है। विश्वास न हो तो नजरें उठाकर देख लो,रूस- यूक्रेन को,इजराइल-फिलिस्तीन को,भारत -पाकिस्तान को,बांग्ला देश को। जिधर दृष्टि जाती है,घृणा ही नज़र आती है।इनका प्रेम मर ही चुका है न !

  रही - सही कमी इन नेताओं ने पूरी कर दी। नेतागण प्रेम के हत्यारे हैं।नेताओं और राजनीति में प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं है।जैसे चील के नीड़ में सेव संतरे नहीं ,माँस ही मिलने की सौ फीसद संभावना है।जितना ही प्रेम मरता है,घृणा जन्म लेती है।यह दायित्व सियासत ने सँभाल रखा है।दूसरे धर्मों,दलों, नेताओं ,व्यक्तियों के प्रति जितनी फैला सको घृणा फैलाओ।भूल से भी प्रेम आड़े न आ जाए।सत्तासन हथियाने के लिए प्रेम की नहीं, घृणा के विस्तार की आवश्यकता है।जो हो भी रहा है। जितना प्रेम मरेगा,उतनी घृणा पनपेगी। मानवता नपेगी।दानवता हँसेगी। दुनिया तो जैसे चलती रही है,चलती रहेगी।कहीं धुंआ,धक्के, धमाल और बबाल का विकराल। प्रेम रहेगा ही कहाँ ,जहाँ घृणा का जमाल।प्रेम बिंदु है ,तो घृणा कटु सिंधु है।एक का कण है तो दूसरा कण - कण में है।

 शुभमस्तु ! 

16.10.2024●11.45आ०मा०

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सरस सुभावों से सजी [ दोहा ]

 472/2024

      

[जीवंत,सरोजिनी,पहचान,अपनत्व,अथाह]

               सब में एक

सरस  सुभावों  से  सजी, रचना  हो जीवंत।

मनुज प्रभावित हों सभी,रसिक गेरुआ संत।।

माटी  की  प्रतिमा   बना, मूर्तिकार दे   रूप।

सुघड़  और जीवंत का,संगम अतुल अनूप।।


आँखें  सरस सरोजिनी,हे कामिनि  रतनार।

मैं रस लोभी  नेह  का,बरसाती - सी प्यार।।

अमराई सामीप्य में, शुभ  सरोजिनी ताल ।

शरदागम   में    खेलते,कितने बाला -बाल।।


छोटी - सी पहचान भी,  बनी प्रणय   संबंध।

ज्यों गुलाब वेला मिले,अद्भुत अमल सुगंध।।

बहुत  दिनों के बाद में, आज मिले हो  मित्र।

बिसरी -सी  पहचान का,उड़ता है नव इत्र।।


शुभ प्रभाव अपनत्व का,जब लाता है रंग।

आत्मीय   लगते   सभी, उमड़े  भाव तरंग।।

चमत्कार अपनत्त्व का, दुनिया में    बेजोड़।

पशु- पक्षी लगते निजी,मुख न सकोगे मोड़।।


आज आश्विनी पूर्णिमा,  उमड़ा   प्रेम अथाह।

हँसता है शशि व्योम में,रस निधि में अवगाह।।

आई  करवा   चौथ  है,तिय  का प्रेम अथाह ।

आज  बना  पति  देवता, पूजा जाता  वाह!!


               एक में सब

हे जीवंत सरोजिनी,परिचय ही पहचान।

मम अथाह अपनत्त्व की,पावन अनुसंधान।।


शुभमस्तु !


16.10.2024●5.30आ०मा०

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बोझ उठाती है धरती [ गीत ]

 471/2024

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तुण्दिल  पेट

साँड़ -से तन का

बोझ उठाती है धरती।


अभी और भी

खाना चाहें

पेट तोंद पर फेर रहे।

भोग सामने

रखा हुआ है

ललचाए दृग हेर रहे।।

सबसे अधिक

कौन खा पाए

बता रही दाढ़ी हिलती।।


नहीं देश के

काम आ सके

भारी -  भारी   मोटे   देह।

सँकरा दर है

कुटियाओं का

हो जाना है जिसको खेह।।

रँगे गेरुआ

तन पर धारे

दुनिया पद -पूजा करती।


अंधे हैं

विश्वास मनुज के

तन  से  काम नहीं होना।

रँगिया बाबाओं 

को घर - घर 

भिक्षा  का दाना बोना।।

'शुभम्' कर्म से

विरत सभी ये

करने पर नानी मरती।


शुभमस्तु !


15.10.2024●11.15आ०मा०

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और नहीं कुछ खास चाहिए [सजल ]

 469/2024

    

समांत       :आस

पदांत        : चहिए

मात्राभार    : 16.

मात्रा पतन  : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गदहों  को    बस     घास   चाहिए।

और नहीं    कुछ    खास   चाहिए।।


दुल्हन    को     मिल   जाए  दुल्हा।

ननद  न    कोई     सास   चाहिए।।


श्याम     पुकारें     श्यामा - श्यामा।

निधिवन  में    नित  रास  चाहिए।।


तारे       छिटक      रहे   अंबर  में।

निशि  को दुग्ध  उजास    चाहिए।।


गुरु  से  ज्ञान    मिले    शिष्यों को।

स्वामिभक्त     हो   दास   चाहिए।।


नीड़  चील    का   रिक्त  न  रहता।

माँस     मिले    विश्वास    चाहिए।।


कविता  सरस   भाव    वाली   हो।

यमक  श्लेष      अनुप्रास  चाहिए।।


शुभमस्तु !


13.10.2024●10.15प०मा०

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रावण को जिंदा रखना है [ गीत ]

 468/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रावण को

जिंदा रखना है

फिर अगले साल जलाने को।


रहने हैं

अत्याचार सभी

व्यभिचार बंद मत करना तुम।

मत बलात्कार भी

बंद करो

अलगाववाद नाचे  छुम - छुम।।

वे पात्र

खोजते  रहना है

जनता को नित्य सताने को।


रावण यदि

होता नहीं यहाँ

रामों   की  पूछ नहीं होती।

कुचले बिन

सीपी का अंतर

मिलते न हमें सुथरे मोती।।

रावण ही

रावण जला रहे

सत्तासन को हथियाने को।


घर -घर रावण

दर-दर रावण

मत राम-लखन को खोज यहाँ।

रामत्व नाम तो

नारा है 

मत   त्रेता   ढूँढ़ें   यहाँ - वहाँ।।

सीताओं में

सत शेष कहाँ 

सासें घर में लतियाने को।


शुभमस्तु !


13.10.2024●12.15अपराह्न

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रविवार, 13 अक्तूबर 2024

मेरा विचार [ नवगीत ]

 467/2024

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आता है आकर चला जाता है,

कभी  आकर  ठहर  जाता  है,

मेरा विचार।


सोते जागते   या  उठते बैठते,

करते हुए काम हँसते चहकते,

भीतर    तक   गहर  जाता  है ,

मेरा विचार।


सोने  भी  नहीं  देता   है  कभी,

हिलने भी नहीं देता   है   तभी,

इधर   -   उधर  नहीं   जाता है,

मेरा विचार।


खिल उठती हैं बाग  में कलियाँ,

चहकने लगती हैं नन्हीं चिड़ियाँ,

मुस्कराता हँसाता लहर जाता है,

मेरा विचार।


कभी अतीत है कभी वर्तमान है,

कभी भविष्यत   में गतिवान  है,

आठों   पहर  आसन लगाता है,

मेरा विचार।


मैं अपने   ही  विचारों का   दास हूँ,

दूर पल को नहीं सदा आसपास  हूँ,

कभी गाँव तो कभी शहर   जाता है,

मेरा विचार।


शुभमस्तु !


11.10.2024●2.30प०मा०

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धीरे- धीरे होंगे दूर [ नवगीत ]

 466/2024

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


धीरे -धीरे 

पास आ गए

धीरे -धीरे होंगे दूर।


वे भी पल थे

हमें मिलाया

नहीं  जानते  थे  किंचित।

बिना मिले

अब रहें न पल भी

जीवन का यह भी है ऋत।।

अलग वृक्ष के

सुमन युगल हम

पूरक हैं दोनों भरपूर।


कौन जानता

भावी पल को

कब क्या  कैसे  हो जाए।

एक बाग में

खिलकर दोनों

कब तक जाने मुस्काए??

विधना के 

हाथों की पुतली

कैसे कब हो जाए चूर!


नट - नटिनी- सा

हमें नचाए

जिसके   हाथों   में   है   डोर।

आए नहीं

निजी इच्छा से

जाना भी है कब किस ओर??

हाथी हो 

या हो पिपीलिका

गति सबकी सम निर्बल सूर।


शुभमस्तु !


11.10.2024●11.00आ०मा०

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घाटी भी अनमोल बड़ी [नवगीत ]

 465/2024

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


 शीश उठाए

पर्वत ऊँचे 

घाटी भी अनमोल बड़ी।


पाटल झाड़

मध्य खिलते हैं

रंग - रंग  के  फूल घने।

महिमा घटती

नहीं शूल की

आश्रय उनके बने- ठने।।

काम नहीं

आतीं तलवारें

आगे  आती सुई खड़ी।


गाय चरैया

नाग नथैया

कान्हा  ग्वाल -बाल के संग।

रास रचाए

धूम मचाए

राधा   गोपी   के  नव  रंग।।

लीलाधर की 

लीला न्यारी

खेल रहा है गेंद तड़ी।


तिनका - तिनका

बड़ा कीमती

चींटी पार   उतर   पाए।

गिरे आँख में

घायल कर दे

मन का चैन बिखर जाए।।


'शुभम्' न समझें

मोल किसी का

कमतर, आती बड़ी घड़ी।


शुभमस्तु !


10.10.2024●3.00प०मा०

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कौन है मानव यहाँ! [अतुकांतिका]

 464/2024

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


देवियाँ भी हैं

देवता भी,

इंसान की है

कमी केवल।


करवा चौथ को

पति देवता

पुजते सदा ही,

नवरात्र में

प्रति शरद या

मौसम वासंती

देवियों के दिन 

अठारह।


देवत्व या देवित्व को

पाना, समझना

बहुत दुष्कर है मुझे,

 ढूँढ़ता हूँ 

कौन है मानव 

यहाँ पर।


वृद्धाश्रमों में भेजतीं

'देवी'  यहीं हैं,

जनक को जो पीटते

वे 'देव'  भी हैं!

वे कौन हैं कोई बताए!


मत कहो 

दानव उन्हें 

राक्षस असुर भी,

अपमान उनका !

देवभूमि है

हमारा देश भारत!

मत लजाएँ,

'शुभम्' किस ठौर जाएँ ?


शुभमस्तु !


10.10.2024●1.45 प०मा०

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कहते खुद को सृजनकार तुम? [नवगीत ]

 463/2024


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मन में क्रूर अदावत पाले,

कहते  खुद को सृजनकार तुम?


नहीं ऊँट को अश्व  सुहाए

अपनी ऊपर  ग्रीवा  ताने,

आता जब पहाड़ के नीचे

मन ही मन लगता भरमाने।

किंचित भी  संवाद नहीं है,

बैठा रहता है बन गुमसुम।।


तन -मन चुभती सफल लेखनी

मानो नागफनी के  काँटे,

रहता  सौ -सौ मील दूर ही

पड़ें कपोलों पर ज्यों चाँटे।

मानवता भी शेष नहीं है

कहता है  मेरी  लंबी  दुम।।


पटबीजना  किया   करता   है 

पड़ा कूप में लुप-लुप लुप-लुप,

पीट रहा नक्कारा अपना

पड़कर कोने छुप- छुप छुप- छुप।

'शुभम्' स्याह का वह रखवाला

मैं ही   मैं ही   मैं  ही   हुम।।


शुभमस्तु !


09.10.2024●2.00प०मा०

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बुधवार, 9 अक्तूबर 2024

अपने दीपक आप हो [ दोहा ]

 62/2024

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्


अपने  दीपक  आप  हो,करो जगत उजियार।

जीवन को उज्ज्वल करो,प्रथम करें सुविचार।।

ध्यान  सदा  ही लक्ष्य पर,रखें, न करना चूक।

चक्षु   खोल  निज ज्ञान के,चले युवा बन  मूक।।


हार  न  मानें   राह    में,  करते    रहें    प्रयास।

एक  दिवस  होगा प्रबल,  जीवन भरा  उजास।।

मात- पिता  गुरु की करें, सेवा भक्ति  अपार।

शुभाशीष तब फलित हो,दिन दूना निशि   चार।।


धृति  को  कभी  न छोड़ना, स्वावलंब  आधार।

युवा  शक्ति  सुदृढ़  रहे, सुलभ जगत  का प्यार।।

शिव    गौरी    आदर्श   हों, वीर वृती  हनुमान।

राम   कृष्ण   को  जानिए,अतुलित वीर महान।।


संत    विवेकानंद    का, आज  अमर  आदर्श।

प्रेरक   तेरा   है     युवा, करके   देख   विमर्श।।

आत्मनियंत्रण   निष्ठता,  एकनिष्ठ सत   प्रेम।

रखें    आत्मविश्वास  भी, चमकेंगे   ज्यों  हेम।।


पिछलग्गू    बनना     नहीं, नेताओं  के    आप।

दृढ़  निश्चय  धारण   करें, मिटते सब   संताप।।

पहचानें   निज   शक्ति  को,अंतर में है  वास।

प्रेरक   हैं   गुरु  आपके,  करें   नहीं उपहास।।


भारत   माँ  की  भक्ति  का,रक्षा का ले भार।

'शुभम्'  योनि  मनुजात की,सार्थक करें अपार।।


शुभमस्तु !


09.10.2024● 6.00आ०मा०

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[10:09 am, 9/10/2024] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

दुर्गा दुर्गतिनाशिनी [ दोहा ]

 461/2024

         

[भवानी,शारदा,दुर्गा,आदिशक्ति, जननी ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्

                  सब में एक

मातु   भवानी  दीजिए, शुभद रुचिर    वरदान।

विनत  रहूँ  माँ  चरण  में,करता निशिदिन  गान।।

माता  हो   त्रय  लोक की, भव भार्या  भी आप।

कृपा   भवानी  की  रहे, मिट जाएँ अघ   ताप।।


ज्ञानदायिनी     शारदा,   करें    रसज्ञा  -  वास।

काव्य सृजन कर मैं करूँ,जग में विमल उजास।।

कविमाता   कवि पालिका,  मातु शारदा   एक।

वाणी    में   अमृत    भरें,  जागे विमल   विवेक।।


दुर्गा   दुर्गतिनाशिनी,  दारुण  दुख   कर   दूर।

हाथ  जोड़   विनती   करूँ, शक्ति भरें  भरपूर।।

महिषासुर   की  घातिनी, माँ दुर्गा  का   तेज।

कोटि - कोटि रवि तुल्य है,जाता नहीं  सहेज।।


आदिशक्ति संसार  की, पालक  घालक एक।

जग   जननी   जगदम्बिके,  तेरे नाम  अनेक।।

आदिशक्ति- आशीष  की,महिमा अपरम्पार।

सन्ततिवत  माँ  पालती,  सबकी रचनाकार ।।


जननी का  संतान   पर, अतुलित नेह अपार।

सेवा कर उस मात की, खुलें  प्रगति के   द्वार।।

जग जननी  जगदंबिका,  हरें सकल   संताप।

भक्ति  रहे  अविचल  सदा,करें हृदय से  जाप।।


                  एक में सब

आदिशक्ति माँ शारदा, जग जननी का तेज।

दुर्गा नाशे     पाप   को,  रूप भवानी    भेज।।


शुभमस्तु !


09.10.2024●4.30आ०मा०

मेरी प्यारी माँ [ गीत ]

 460/2024

              


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जननी मेरी पहली गुरुवर

धरती की माँ धैर्य अनूप।


माँ की समता ऐसी ममता

और कहाँ जग में पाऊँ।

सूखी कथरी मुझे सुलाया

वत्सलता पर बलि जाऊँ।।


सदा भावना   यही   सँजोए

लगे न किंचित सुत को धूप।


स्वयं अभावों में  रह लेती

किंतु नहीं कोताही की।

दूध पिलाकर अपने तन का

प्रियता भरी सुराही  भी।।


जन्म - जन्म  में उपकारों का

बदला चुका न सके स्वरूप।


जगती में भगवान कहीं यदि

तो प्यारी   जननी  भगवान।

जननी जनक समान नहीं हैं

और   नहीं   कोई   इंसान।।


जब तक जन्म मिले  धरती पर

मिले 'शुभम्' को माँ भव - कूप।


शुभमस्तु !


08.10.2024● 11.00आ०मा०

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विदा हो गए पितर सभी [ गीत ]

 459/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


क्वार महीना

विदा हो गए

पितर लोक को पितर सभी।


वर्षा बूढ़ी हुई

धरा पर 

अंबर  दिखता है   नीला।

यहाँ वहाँ पर

फूल उठे हैं

झुरमुट काँस हुआ ढीला।।


हाथ हिलाते

तने खड़े हैं

उत्फुल्लित उर लगे अभी।


मेंड़ खेत की

हरियाली मय

छतें घरों की सीढ़ी भी।

काँस सुलंबित 

नाच उठे हैं 

मानो बूढ़ी   पीढ़ी-सी।।


हिल उठते हैं

झूम पवन में

मुकुट भाल के कभी- कभी।


'शुभम्' बुढ़ापा

आता है तो

पकने लगते सिर के बाल।

ज्ञान - वृद्ध जब

होता कोई 

बदली -बदली होती चाल।।


नहीं एक सम

दिन रह पाते

जीवन के खुशहाल न भी।।


शुभमस्तु !


08.10.2024●4.15आ०मा०

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सृष्टि बदलती है [ गीतिका ]

 458/2027

            


सृष्टि    बदलती  है   क्षण-क्षण में।

प्रभु का  वास  यहाँ  कण-कण में।।


पाप -  पुण्य    करता   है   मानव,

ले   निहार  मन     के   दर्पण   में।


कर ले    मात -  पिता   की  सेवा,

लगा  न जीवन   अपना   पण  में।


अहंकार      में      मानव     डूबा,

वह्नि  दहकती  मन   के  व्रण  में।


ढेरों  धूल    लदी    है    मन   पर,

झाड़    रहा   मानव   दर्पण   में।


वाणी  से  कर्कश    नर    वायस,

लाज  आ  रही  रस -  वर्षण  में।


'शुभम् '    कुंडली    मारे    बैठा,

शांति  नहीं  जग के   जनगण में।


शुभमस्तु !


07.10.2024●5.45आ०मा०

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शांति नहीं जनगण में [ सजल ]

 457/2027

      

समांत      : अण

पदांत       : अपदांत

मात्राभार   :16

मात्रा पतन : शून्य


सृष्टि    बदलती  है   क्षण-क्षण में।

प्रभु का  वास  यहाँ  कण-कण में।।


पाप -  पुण्य    करता   है   मानव।

ले   निहार  मन     के   दर्पण   में।।


कर ले    मात -  पिता   की  सेवा।

लगा  न जीवन   अपना   पण  में।।


अहंकार      में      मानव     डूबा।

वह्नि  दहकती  मन   के  व्रण  में।।


ढेरों  धूल    लदी    है    मन   पर।

झाड़    रहा   मानव   दर्पण   में।।


वाणी  से  कर्कश    नर    वायस।

लाज  आ  रही  रस -  वर्षण  में।।


'शुभम् '    कुंडली    मारे    बैठा।

शांति  नहीं  जग के   जनगण में।।


शुभमस्तु !


07.10.2024●5.45आ०मा०

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रविवार, 6 अक्तूबर 2024

ज़हर से भी जहरीला आदमी [व्यंग्य]

 456/2024



 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 सोचा थ, ज़हर बनाएँ।बना भी लिया।किंतु सोच का थोड़ा - सा अंतर है।आप भी उसी सोच से सोचिए।ये जहर निर्माण अपने लिए नहीं किया।क्या ज़हर बनाकर हमें आत्महत्या थोड़े ही करनी है। इसे खाकर दूसरे लोग मरें। अब मरें तो मरें। अपना क्या जाता है?ज़हर खूब बिकेगा। हमारी आमदनी बढ़ेगी।लेकिन क्या करें ,उन्होंने हमारे लिए बना डाला।तुम भी खाओ ,हम भी खाएँ। तुम भी हमारा ज़हर खाकर बेमौत मरो,हम भी तुम्हारा ज़हर खाकर बेमौत मरें। 

  यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ ,ढूंढों नहीं कहाँ -कहाँ ;ज़हर का फ़ैलाव है।सैलाब है।भले ही घी,तेल, फल, सब्जी, दवा,मसाले,अन्न,दालें,सोना,चांदी, नकली मिले,किन्तु हमारे और तुम्हारे ज़हर की ये गारंटी है,कि यह डेढ़ सौ प्रतिशत शुद्ध ही मिलेगा।इससे मरने की पूरी गारंटी है।तुम भी मारो, हम भी मारें।आखिर आदमी को आदमी के ही हाथों मरना है। आदमी को आदमी के ही कारण मरना है।इन ऊँचे-ऊँचे भवनों ,अट्टालिकाओं,बीसियों मंजिला ऊँचे भवनों में आदमी को निगलने जगंल या चिड़ियाघर से शेर चीते तो नहीं आ रहे । जब आदमी आदमी का दुश्मन है,उसका ज़हर है ;तो आदमी की मौत कारण भी आदमी ही बनेगा।अब यह अलग बात है कि कोई नकली और मिलावटी दवा से मरता है।कोई तेल में पौमोलिव ,घी और मंदिरों के लड्डूओं में चर्बी, धनिये में लीद, हल्दी और मिर्च में रंग,काली मिर्च में पपीते के बीज,कागज़ के प्यालों में जहरीली पॉलीथिन से मर रहा है;किन्तु उसका एक मात्र कारण आदमी के मन और मस्तिष्क का जहर है।

  जो आदमी जिस स्तर का है,वह उसी स्तर का जहर -निर्माण कर नर -संहार कर रहा है।किसी देश का शासक गोला बारूद,तोपों, तरह तरह की अत्याधुनिक गनों और अस्त्र शास्त्रों से जहर -वृष्टि कर रहा है।एक कुंजड़ा सब्जियों को जहरीले रँग से अनुरंजित करके मौत बो रहा है। मौत बेच रहा है। और समझदार आदमी खरीद कर खा रहा है,और कैंसर आदि से सिधार रहा है।दूधवाली या दूध वाला ज्यादा से ज्यादा नाले का पानी मिला देगा या नल का। वह तो बेचारा गरीब है। पर है वह भी जहर बेचने वालों की पंक्ति का ही आदमी या औरत।दवाओं और मसालों में मिलावट करने वाले भी छुपे रुस्तम हैं। किसान भी कम नहीं है। उसे भी ज्यादा पैदावार का लालच उसे कीटनाशी नहीं ,मानव -नाशी रासायनिक डालने को आहूत कर रहा है। और वह भी उसके आवाहन को सहर्ष स्वीकार करते हुए जहर बो रहा है,जहर काट रहा है,जहर उगल रहा है। अब वह अन्नदाता नहीं, मृत्युदाता की पदवी का अधिकारी है। फल उगाने और बेचने वाले इसी पंक्ति की शोभा बढ़ाने वाले हैं। 

  यहाँ जहर के निर्माण ,विस्तार, प्रचार,संचार में कोई किसी से कम नहीं है। नेता गण विपक्षियों के लिए विष -वमन कर रहे हैं तो उधर समर्थ और कार्यरत जन उत्कोच-विष की खेती कर रहे हैं।और उसके परिणामस्वरूप घरों में सोना , हीरे, जवाहरात, नोटों के अंबार लगाए कोबरा बने हुए उनके रक्षक बने हुए हैं।जिधर भी नज़र डाली जाए ,आदमी-आदमी, औरत-औरत जहर की पुड़िया नहीं,खदान नजर आती है। जितना भी खोदिये उनके तन- मन, विचार और भावों में विष का सागर हिलोरें लेता हुआ दिखाई देगा। 

जहर से कोई अनभिज्ञ भी नहीं है।सब जानते हैं,कि हम जहर खरीद रहे हैं। जहर खा रहे हैं।कुछ लालचवश कुछ मजबूरीवश! सारी धरती जहर से पाट दी गई है।एक से एक बेहतर जहर निर्माता पैदा हो रहे हैं।बचिए ! जाओगे तो जाओगे कहाँ बच्चू ! काम तो आदमी से ही पड़ना है! सब एक दूसरे के दुश्मन हैं।रिश्वत लेते हुए पकड़े जाओ,तो रिश्वत देकर छूट जाओ ! सीधा सरल समीकरण है! जहर ही जीवन दाता भी बन गया है।कौन किस जहर से सिधारे ,कुछ पता नहीं । हाँ ,इतना सुनिश्चित है कि सिधारना जहर से ही है ;जिसका निर्माण जहर से ज़हरीले आदमी ने किया है।

 शुभमस्तु ! 

 06.10.2024●3.00प०मा० 


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डूबती-उतरा रही है सास [नवगीत ]

 455/2024

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ले अपेक्षा का समंदर

डूबती-उतरा रही है सास।


बेटियाँ हैं लाड़ली

अपनी बहुत अपनत्व भीगी,

नाक का प्रिय बाल।

उधर बहुएँ गैर क्यों हैं?

है नहीं अपनत्व कोई,

हाल भी बेहाल।।

निकट आते ही बहू में दूर से ही

आ रही है वास।


किरकिरी हैं आँख की

बहुएँ , न भाएँ

दोष-दर्शन एक,

बेटियाँ टुकड़ा जिगर का

जो कभी कुम्हला न पाएँ

पुत्र की प्रिय नेक 

चार दिन की चाँदनी

है, वक्त बीते

क्यों न आती रास?


सास ननदों में कहाँ है

अब कोई देवित्व भी?

खोजता है दौर।

पूज ले भी चरण उनके

कर रहा है नित्य विनती

स्वप्न पाले कौर,

सोचता है 'शुभम्'

कैसे रुके होना?

स्नेह का उपहास।


शुभमस्तु !


03.10.2024●5.00 प०मा०

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देवित्व बनाम देवत्व! [ अतुकांतिका ]

 454/2024

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


माना तुम्हें देवी हमने!

पर सास क्यों देवी नहीं है?

ननद क्यों आनन्द में

पत्थर पटकती?

देवित्व को

 क्यों कर विनसती?


आग में बहुएँ  जलातीं

कौन - सी देवी बताएँ!

ससुर को वृद्ध आश्रम भेजतीं

सबको जताएँ! 

सास को भी पीटतीं

अनुदिन सताएँ,

वे देवियाँ हैं कौन सी

जग को दिखाएँ !


जींस में तन को दिखाती

देवियाँ हैं?

हाई हील में हिलती

हुमसतीं  टोलियाँ हैं!

बदलती भाषा

नारी - अभिव्यक्ति की

देवियों की फ़र्फ़राती

परिभाषिकाएँ ?


वे देवियाँ 

किस ओर हैं

जो पूजनीया!

वे देवियाँ 

किस रूप में

जो वन्दनीया !

तैयार हैं हम

नत मस्तक हो जाएँ उनसे।


देवता तुम !

बहन भी देवी तुम्हारी!

किंतु दूजी अन्य  पर

है बुरी काली नजरें तुम्हारी?


प्रश्न कितने हैं 'शुभम्'

पहले मनुष्य रह लो,

मर गया देवत्व नर का,

मर गया देवित्व उनका,

क्यों वृथा ही कर रहे

मिथ्या महिमा मंडन

स्वयं ही नारियों का

और नर का!


शुभमस्तु !


03.10.2024●4.00प०मा०

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गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

बदल गई है चाल [ नवगीत ]

 453/2024

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कहती हैं

कम नहीं किसी से

बदल गई  है  चाल।


अबलापन का

तमगा टाँगे

चली जा रहीं गैल।

पहल अगर जो

कर दी तुमने

निकल पड़ेगा मैल।।

उड़ती चूनर

फर -फर फर-फर

बिखरे  सूखे बाल।


चित भी मेरी

पट भी मेरी

मैं दुर्गा का रूप।

तन -मन से

पूज्या चंडी भी

उच्च शिखर मैं कूप।।

रक्षक और

भक्षिका तेरी

नर्क , स्वर्ग की ढाल।


'शुभम्' पहेली

तुमने माना 

करो न क्यों स्वीकार !

सद्गुण का

भंडार सदा ही

विकृत हृदय विहार।।

चलना हो तो

चलो साथ में

संग मिलाके ताल।


शुभमस्तु!


02.10.2024●12.30प०मा०

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सत्याग्रह धारण करें [ दोहा ]

 452/2024

         

[सत्य,अहिंसा,सत्याग्रह,सादगी,शांति]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 

                   सब में एक

मात्र    ईश    ही सत्य है, आभासी    संसार।

सत्याश्रय  में जो जिया,मिलती शांति अपार।।

सदा सत्य शाश्वत  यहाँ,शेष सकल भ्रमजाल।

माया ग्रसती जीव को, विविध रूप दे   ताल।।


हिंसा    चारों    ओर   है,   सत्यशील   बेचैन।

क्यों न अहिंसा विश्व में, बढ़े  नहीं   दिन-रैन??

प्रबल अहिंसा मंत्र का, जंगल  में क्या   काम!

शठ  से  शठता  ही   सही, तभी बचाएँ    राम।।


शठ   शठता  तजता नहीं, सत्याग्रह है   व्यर्थ।

उठा  शस्त्र  अब  लीजिए, बनें  नहीं असमर्थ।।

सत्याग्रह  से   हिंस्र  का,  बदले नहीं  विचार।

जैसे   को   तैसा    करें,  रखना नहीं  उधार।।


सदा  सादगी  श्रेष्ठ  है, रखना उच्च    विचार।

 जतलाओ मत ढोंग कर , तुम ही हो करतार।।

अपनाए   जो  सादगी, करता कर्म    महान।

सूरज - सा  चमके  यहाँ, करके  तेज  प्रदान।।


सबके   ही  मन  में यही, सुंदर  सुहृद स्वभाव।

परम शांति  उर  में  बसे, बने न कोई   घाव।।

जीते  - जीते  जी  गया,  जीवन   रहा   अशांत।

शांति मिली पल को नहीं,भटक रहा जन भ्रांत।।


                  एक में सब

सत्य  अहिंसा  सादगी,और चाहिए   शांति।

सत्याग्रह धारण   करें,तजें जगत की  भ्रांति।।


शुभमस्तु !


02.10.2024●6.00आ०मा० 

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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

वर्ण ज्ञान का ये समवेत [ गीत ]

 451/2024

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


श्वेत केश

निस्सार नहीं हैं

वर्ण ज्ञान का ये समवेत।


इंद्रधनुष -

सौंदर्य समाया

देख सको तो देखो तुम।

धी के घी में

तप्त हुए हैं

अनुभव,इन्हें न समझें दुम।।

ये तन-मन

बेकार नहीं हैं

समझ रहे जो सूखी रेत।


दुत्कारा 

इनको दुनिया ने

बेटा - बहू न डालें घास।

वृद्ध आश्रम

में झोंका है

नहीं चाहते अपने पास।।

पतन आ गया

तेरा मानव

चेत ! चेत !!हे यौवन चेत।


वृद्ध पिता - माता

के चरणों 

की तू नहीं सुनहरी धूल।

शांति नहीं

मिलनी आजीवन

वैभव सुख में जाता भूल।।

'शुभम्' पाँव

धो - धो कर पी ले 

मरा आँख का पानी हेत।


शुभमस्तु !

01.10.2024●5.15आ०मा०

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नव सभ्यता आई हुई! [ नवगीत ]

 450/2024

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पहन कर 

कुछ चीथड़े

नव सभ्यता आई हुई।


आँख में 

पानी नहीं है

है नुमाइश देह की ये,

खूब देखो

रोकना क्या

भीगती है मेह में ये,

जो कभी 

भूषण रही थी

आज है पूरी  मुई।


बाप देखे

भ्रात देखे

देखतीं सड़कें सभी ये,

बेहोश 

जिज्ञासा मनुज की

अनहोनियाँ जिंदा तभी से,

संवेदनाएँ

मास्क पहने

चुभती नहीं जैसे सुई।


पंक में 

पत्थर उछालें

दोष कीचड़ का बताएँ,

जींस जाँघों

पर उधेड़ी

पकड़ लड़कों को सताएँ,

बेटियाँ ये

नवल युग की

उछलतीं  करती  उई!


शुभमस्तु !


30.09.2024●2.00प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...