बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

प्रेम का प्रसाद ? [ व्यंग्य ]



473/2024 

 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 प्रेम ,प्रेम है। प्रेम कोई प्रसाद तो है नहीं कि जिस - तिस को बाँटते उछालते रहा जाए।यह तो केवल और केवल अपनों के लिए है। अपनों की परिधि में जो भी आते हैं,वे सभी प्रेम के पाने के पात्र हैं।यह सबके लिए नहीं है। आम जन के लिए भी नहीं है।अपनों का घेरा कोई इतना विस्तृत तो हो नहीं सकता कि इसकी कुंडली में सारे ब्रह्मांड को लपेट लिया जाए।अब इस सीमा को सुनिश्चत करना आवश्यक हो गया है कि किस -किस को प्रेम किया जाए और किसको इससे वंचित रखा जाए।जब किसी को इससे वंचित रखा जाएगा तो वंचितों को किंचित तो देना ही होगा ,और वह होगी घृणा,एकमात्र घृणा। 

  जब बात प्रेम को सीमाबद्ध करने की आई है ;तो उसका भी अवलोकन कर लिया जाए।पहले ही कहा गया है कि यह केवल अपनों के लिए है।अपनों की सीमा में सबसे निकट और विकट कोई है वह है अपनी संतान।माता -पिता अपनी संतान से प्रेम करते हैं,यह जगज़ाहिर है।क्योंकि वे उनके रक्त सम्बन्ध में आबद्ध हैं। अपने बच्चों को छोड़कर दूसरों के बच्चों को दूसरा ही समझा जाए।हाँ,प्रेम का नाटक करने में कोई आपत्ति नहीं है।किंतु उन सबसे प्रेम तो नहीं किया जा सकता। इसके बाद बारी आती है स्वजातियों की।अपनी जाति वालों से प्रेम करते हुए ऐसे सिमट जाओ ;जैसे कुंए का मेंढक अपनी चार - छः फुट की दीवारों के अंधकूप को ही अपनी सारी दुनिया मान बैठता है।अन्य जातियों के लोगों से घृणा करो।उन्हें अपने समक्ष तुच्छ, हेय और गुण हीन सिद्ध करने में लगे रहो।अपने आप मियां मिट्ठू बने रहो,बनते रहो।अन्य जातियों को अपनी जाति के समक्ष नीची सिद्ध करते रहने में जिंदगी गुजार दो। भूल से भी उनसे प्रेम मत कर लेना। 

  अन्य मज़हब और धर्मावलंबियों को तो कभी प्रेम करना ही नहीं है। उनसे तो घृणा ही करनी है। मौके बे मौके उन पर ईंट- पत्थर बरसाओ, बम बरसाओ, गोलाबारी करो,किंतु प्रेम करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।धर्म बने ही घृणा फैलाने के लिए हैं। यदि स्वधर्मी से प्रेम किया तो क्या किया ? उससे घृणा ही करनी है। यही सच्चा मनुष्य धर्म है। 

   शैशवावस्था में माँ स्व -शिशु को स्व-स्तन से चिपकाकर प्रेम करती है। शिशु भी माँ को उतना ही प्रेम करता है।वही पिता से प्रेम करना सिखाती है।तो पिता भी संतति का प्रेम पात्र बन जाता है।धीरे -धीरे प्रेम का दायरा बढ़ता है तो भाई -बहन,चाचा -चाची आदि भी उसमें घुसा लिए जाते हैं।ये सभी स्वजातीय भी हैं और स्वरक्तीय भी हैं।इसलिए इनसे इनमें प्रेम का अंकुर प्रस्फुटित होना भी जरूरी है।जब वही शिशु बालक, बाला भोलाभाला होता है ,तो प्रेम पल्लवन फूलने - फलने लगता है। किशोर/किशोरी होते ही विपरीत लिंगी के साथ जब प्रेम का विस्तार होने लगता है ,फिर तो जाति धर्म और मज़हब की दीवारें भी टूट जाती हैं।यह भी प्रेम का एक रूप है।जिसे गदहपचीसी की उम्र भी कहा जाता है।यहाँ आने के बाद कूँआ ,बाबली,खाई, गड्ढा, पोखर कुछ भी दिखना बंद हो जाता है। प्रेम विस्तार जो पा रहा है। 

  प्रेम आत्मकेंद्रित है तो घृणा का संसार में विस्तार है। जहाँ प्रेम हो या न हो ,घृणा अवश्य मिलेगी।ये बहुत सारी जातियाँ,मज़हब,धर्म इसके विस्तार हैं।यहाँ घृणा की तेज रफ्तार है।आदमी घृणा से नहीं प्रेम से बेजार है।घृणा तो कहीं भी मिल जाएगी।उसे परमात्मा न समझें। प्रेम तो जमा हुआ घी है,घृणा तालाब में पड़ी हुई तेल की बूँद है,जो निरन्तर फैलती ही फैलती है। विश्वास न हो तो नजरें उठाकर देख लो,रूस- यूक्रेन को,इजराइल-फिलिस्तीन को,भारत -पाकिस्तान को,बांग्ला देश को। जिधर दृष्टि जाती है,घृणा ही नज़र आती है।इनका प्रेम मर ही चुका है न !

  रही - सही कमी इन नेताओं ने पूरी कर दी। नेतागण प्रेम के हत्यारे हैं।नेताओं और राजनीति में प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं है।जैसे चील के नीड़ में सेव संतरे नहीं ,माँस ही मिलने की सौ फीसद संभावना है।जितना ही प्रेम मरता है,घृणा जन्म लेती है।यह दायित्व सियासत ने सँभाल रखा है।दूसरे धर्मों,दलों, नेताओं ,व्यक्तियों के प्रति जितनी फैला सको घृणा फैलाओ।भूल से भी प्रेम आड़े न आ जाए।सत्तासन हथियाने के लिए प्रेम की नहीं, घृणा के विस्तार की आवश्यकता है।जो हो भी रहा है। जितना प्रेम मरेगा,उतनी घृणा पनपेगी। मानवता नपेगी।दानवता हँसेगी। दुनिया तो जैसे चलती रही है,चलती रहेगी।कहीं धुंआ,धक्के, धमाल और बबाल का विकराल। प्रेम रहेगा ही कहाँ ,जहाँ घृणा का जमाल।प्रेम बिंदु है ,तो घृणा कटु सिंधु है।एक का कण है तो दूसरा कण - कण में है।

 शुभमस्तु ! 

16.10.2024●11.45आ०मा०

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