458/2027
सृष्टि बदलती है क्षण-क्षण में।
प्रभु का वास यहाँ कण-कण में।।
पाप - पुण्य करता है मानव,
ले निहार मन के दर्पण में।
कर ले मात - पिता की सेवा,
लगा न जीवन अपना पण में।
अहंकार में मानव डूबा,
वह्नि दहकती मन के व्रण में।
ढेरों धूल लदी है मन पर,
झाड़ रहा मानव दर्पण में।
वाणी से कर्कश नर वायस,
लाज आ रही रस - वर्षण में।
'शुभम् ' कुंडली मारे बैठा,
शांति नहीं जग के जनगण में।
शुभमस्तु !
07.10.2024●5.45आ०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें