463/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मन में क्रूर अदावत पाले,
कहते खुद को सृजनकार तुम?
नहीं ऊँट को अश्व सुहाए
अपनी ऊपर ग्रीवा ताने,
आता जब पहाड़ के नीचे
मन ही मन लगता भरमाने।
किंचित भी संवाद नहीं है,
बैठा रहता है बन गुमसुम।।
तन -मन चुभती सफल लेखनी
मानो नागफनी के काँटे,
रहता सौ -सौ मील दूर ही
पड़ें कपोलों पर ज्यों चाँटे।
मानवता भी शेष नहीं है
कहता है मेरी लंबी दुम।।
पटबीजना किया करता है
पड़ा कूप में लुप-लुप लुप-लुप,
पीट रहा नक्कारा अपना
पड़कर कोने छुप- छुप छुप- छुप।
'शुभम्' स्याह का वह रखवाला
मैं ही मैं ही मैं ही हुम।।
शुभमस्तु !
09.10.2024●2.00प०मा०
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