477/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
घर के घी की खोज में,पाली ईरू गाय।
घास चराने का नहीं, मिलता अन्य उपाय।।
सोचा था गौ पालकर, मिले हमें सुख चैन।
रात -दिवस चिंता हमें,लगे हुए हैं नैन।।
ईरू जलदी हो बड़ी, जब दे ढेरों दूध।
दूध पिए घर भर सभी,कब भारी हों ऊध।।
गौरी के सँग नित्य ही, काट रहा हूँ घास।
आशा ईरू से बड़ी,होता नहीं उदास।।
रंग गेरुआ गाय का,शुभता का भंडार।
भोली भाली मात गौ,एक न वहाँ विकार।।
घर के सभी सदस्य भी,लें सेवा दायित्व।
तभी दूध अमृत बने,वरना क्या औचित्य??
एक दिवस मीठा मिले,सेवा का फल खूब।
गाढ़ा - गाढ़ा दूध दे, हरी-हरी खा दूब।।
सरल पालना गाय का,किंतु कठिन है भार।
संतति मौज मना रही,कहती क्या दरकार??
सेवा से मेवा मिले, जो करता हो सेव।
पूजो तो पाषाण भी, फल को खड़े सदैव।।
'शुभम्' कहें आशीष लें, ईरू माँ का आप।
जाए दुख दारिद सभी,तन मन के सब ताप।।
शुभमस्तु !
20.10.2024 ●11.45आ०मा०
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