मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

वर्ण ज्ञान का ये समवेत [ गीत ]

 451/2024

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


श्वेत केश

निस्सार नहीं हैं

वर्ण ज्ञान का ये समवेत।


इंद्रधनुष -

सौंदर्य समाया

देख सको तो देखो तुम।

धी के घी में

तप्त हुए हैं

अनुभव,इन्हें न समझें दुम।।

ये तन-मन

बेकार नहीं हैं

समझ रहे जो सूखी रेत।


दुत्कारा 

इनको दुनिया ने

बेटा - बहू न डालें घास।

वृद्ध आश्रम

में झोंका है

नहीं चाहते अपने पास।।

पतन आ गया

तेरा मानव

चेत ! चेत !!हे यौवन चेत।


वृद्ध पिता - माता

के चरणों 

की तू नहीं सुनहरी धूल।

शांति नहीं

मिलनी आजीवन

वैभव सुख में जाता भूल।।

'शुभम्' पाँव

धो - धो कर पी ले 

मरा आँख का पानी हेत।


शुभमस्तु !

01.10.2024●5.15आ०मा०

                ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...