मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

फॉल इन लव [ व्यंग्य ]

 489/2024 


 ©व्यंग्यकार 

डॉ० भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 'लव' (प्रेम) में पड़कर किसी का 'राइज' ,'अपराइज' अथवा 'गेटअप' नहीं हुआ। यदि हुआ है तो 'फॉल' ही हुआ है। पतन ही हुआ ,वह गिरा है अथवा गिरी है।प्रेम में कोई ऊपर चढ़कर पहाड़ पर नहीं गया। आप अच्छी तरह जानते हैं कि अंग्रेज़ी शब्द 'फॉल' का अर्थ 'गिरना' अथवा 'पतन' ही होता है। कहते हैं कि प्रेम या लव किया नहीं जाता ,हो जाता है।इसके लिए 'क्यों' प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है।कहते हैं कि प्रेम सकारण नहीं होता, अकारण ही हो जाता है।जब सब कुछ जानते हैं,फिर भी प्रेम में गिरते हैं,पतित होते हैं।

  प्रेमोपदेशकों ने प्रेम का बहुत अधिक महिमा - मंडन किया है। प्रेम का गुणगान कर करके तथाकथित प्रेमियों को पुदीने के झाड़ पर चढ़ाया है। राधा - कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम को लौकिक प्रेम के सूखे बाँस पर चढ़वाया है। चढ़ जा बेटे शूली पर भली करेंगे राम।छोड़ दे घर परिवार माता -पिता हैं बेकाम।बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा ? पहन ले गुजरिया प्रेम का चोगा ।लाज,हया,शर्म सब उतार दे। प्रेम की माला से गले को सँवार ले। नकद न मिले तो इज्जत को धुँआर दे।कूद जा लव के कुएँ में।हार जा मान इज्जत प्रेम के जुए में।बड़ा ही स्वाद है इस प्रेम के पुए में।

    नया शब्द आया है 'रिलेशनशिप'।समाज और उसकी मान्यताओं को धता बता। गिर जा किसी के प्रेम में और बन जा पेड़ की लता।कहती फिर यही मैंने की नहीं है कोई खता। 'रिलेशनशिप ' अर्थात 'सहजीवन' और विधिक विवाह अर्थात 'असह्य जीवन'।मानवता की उधड़ती हुई सीवन। ये प्रेम में पतित होने का परिणाम है।जहाँ मनुष्यता और नैतिकता को अलविदा प्रणाम है।बन गया आदमी गाय, भैंस ,बकरी, भेड़,श्वान, बिल्ली,गर्दभ,अश्व ढोर। अत्याधुनिकता का जीवंत उपहास। न कोई माता -पिता न कोई ससुर- सास।इनसे तो लगने लगी है बास। अल्पावधि का चढ़ता हुआ नशा। जिसने भी जाना - सुना हँसा ही हँसा।बिक गए गहने। खत्म हुईं हैं चुहलें। और प्रेम - पयोधि में तैर ले,मछली - सा बह ले। अब नहीं दिखते कहीं नहले पर दहले। सहे जा !सहे जा !! दुनिया के हमले।मुरझा गए प्रेम - सुमन , टूट गए गमले।

  वासना पर प्रेम का मुलम्मा कब तक टिकेगा!खुमार उतरते ही एल्मुनियम चमकेगा।वासना ही प्रेम का आधुनिक भ्रम है।जैसे किसी मद्प्रेमी को मिल जाए रम है।उसके बाद उसे नहीं कोई भी ग़म है। वासना में ही इस अनचीन्हे 'प्रेम' का क्रम है। ऐसे प्रेम की कहानी पूर्णता नहीं पाती। इस अपूर्णता की ही कहानियाँ कही जातीं।पति -पत्नी के प्रेम के महाकाव्य नहीं मिलते। क्या वे गृहस्थ जन सुमनवत नहीं खिलते। वे गिरते नहीं,उठते हैं।देश और समाज में सिर उठाकर चलते हैं।वे बिगड़ते भी नहीं ,बनते हैं।समाज के विस्तार में अहं भूमिका का निर्वाह करते हैं। 

 मोह की गोह ने नया प्रेम टोह लिया है।दायित्वों से जिसने सदा द्रोह किया है।कोई कितना नीचे गिरे,इसकी कोई थाह नहीं।सुनाई भी नहीं पड़ती इसकी आह नहीं। होती भी कहीं कहानी किस्सों में इसकी वाह वाह नहीं।जो गिरा तो गिरता चला गया। अपने ही हाथों निरंतर छला गया।विवेकशीलों ने यही कहा भला गया। यदि वंश भी बढ़ा लिया तो निर्दोष पुत्र वर्णशंकर कहलाया।यह मोहिल प्रेम के पतन की पराकाष्ठा है। आज के नौजवानों को इसी में आस्था है। जब गिरना है,तो डूब - डूब जाना है। वहाँ जाकर कोई भी सुरक्षित नहीं लौटा, फिर आपको क्या समझाना है?

 शुभमस्तु ! 

 28.10.2024● 8.30प०मा० 

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