482/2024
[प्रत्याशा,प्रत्यूषा,प्रथमेश,प्राकट्य,प्रहर्ष]
©शब्दकार
डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब में एक
प्रत्याशा में जी रहा,गतिमय जगत असार।
निशा अँधेरी बीतती, लेता भोर प्रभार।।
मत प्रत्याशा त्यागना,यदि विकास की चाह।
अंतर में सूरज छिपा, रश्मि पुंज अवगाह।।
प्रत्यूषा संजीवनी, मानव युवा किशोर।
सँभल-सँभल पद डालिए,मत हो भाव विभोर।।
प्रत्यूषा वेला सदा, आशाओं का भोर।
समय नष्ट मत कीजिए,बनिए चाँद - चकोर।।
माना है प्रथमेश ने, जननी- जनक महान।
प्रेरक वे संसार के, सेवा करें प्रदान।।
अपनी बुद्धि प्रबोध से, बनते हैं प्रथमेश।
परिक्रमा उनकी करें, हर्षित उमा महेश।।
आत्मा के प्राकट्य का,शुभ दिन है अज्ञात।
कर्मों का सुफलन मिले,दिवस भोर या रात।।
भादों कृष्ण निशीथ में, शुभ वेला प्राकट्य।
वासुदेव सुत कृष्ण का,हुआ अवतरण भव्य।।
प्राप्त सफलता से सदा,बढ़ता 'शुभम्' प्रहर्ष।
दिन पर दिन हो उच्चतम,रवि का भाल प्रकर्ष।।
शुभ परिणति सत्कर्म की,जाग्रत भव्य प्रहर्ष।
रोम - रोम हो नृत्यरत, जीवन का उत्कर्ष।।
एक में सब
सह प्रहर्ष प्रथमेश का, प्रत्यूषा प्राकट्य।
प्रत्याशा दे पुत्र की, उमा जनक भवितव्य।।
शुभमस्तु !
23.10.2024 ● 3.30आ०मा०
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