455/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
ले अपेक्षा का समंदर
डूबती-उतरा रही है सास।
बेटियाँ हैं लाड़ली
अपनी बहुत अपनत्व भीगी,
नाक का प्रिय बाल।
उधर बहुएँ गैर क्यों हैं?
है नहीं अपनत्व कोई,
हाल भी बेहाल।।
निकट आते ही बहू में दूर से ही
आ रही है वास।
किरकिरी हैं आँख की
बहुएँ , न भाएँ
दोष-दर्शन एक,
बेटियाँ टुकड़ा जिगर का
जो कभी कुम्हला न पाएँ
पुत्र की प्रिय नेक
चार दिन की चाँदनी
है, वक्त बीते
क्यों न आती रास?
सास ननदों में कहाँ है
अब कोई देवित्व भी?
खोजता है दौर।
पूज ले भी चरण उनके
कर रहा है नित्य विनती
स्वप्न पाले कौर,
सोचता है 'शुभम्'
कैसे रुके होना?
स्नेह का उपहास।
शुभमस्तु !
03.10.2024●5.00 प०मा०
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