465/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
शीश उठाए
पर्वत ऊँचे
घाटी भी अनमोल बड़ी।
पाटल झाड़
मध्य खिलते हैं
रंग - रंग के फूल घने।
महिमा घटती
नहीं शूल की
आश्रय उनके बने- ठने।।
काम नहीं
आतीं तलवारें
आगे आती सुई खड़ी।
गाय चरैया
नाग नथैया
कान्हा ग्वाल -बाल के संग।
रास रचाए
धूम मचाए
राधा गोपी के नव रंग।।
लीलाधर की
लीला न्यारी
खेल रहा है गेंद तड़ी।
तिनका - तिनका
बड़ा कीमती
चींटी पार उतर पाए।
गिरे आँख में
घायल कर दे
मन का चैन बिखर जाए।।
'शुभम्' न समझें
मोल किसी का
कमतर, आती बड़ी घड़ी।
शुभमस्तु !
10.10.2024●3.00प०मा०
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