मंगलवार, 13 जुलाई 2021

ग़ज़ल 🪂


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✍️ शब्दकार ©

❤️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कवि  न  कभी  बूढ़ा होता है।

सागर  में    बूड़ा    होता  है।।


कवि  सूरज के  पार विचरता,

बीज - वपन  गूढ़ा   होता  है।


नवरस में   आनंदित  है कवि,

किंतु  नहीं  ऊढ़ा   होता    है।


आम  आदमी - सा  ही तन है,

कवि का उर  चूड़ा   होता  है।


जान  न  पाते   दुनिया  वाले,

काव्य  जिन्हें  कूड़ा  होता है।


बाहर  भीतर तह  तक  जाए,

कवि न केश - जूड़ा  होता है।


'शुभम'  विराजें   मातु शारदा,

वाणी का     मूढ़ा   होता   है।


ऊढ़ा = परकीया वत।

चूड़ा =शिखर।

मूढ़ा = आसन।


🪴 शुभमस्तु !


१३.०७.२०२१◆३.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

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