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✍️ शब्दकार ©
❤️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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कवि न कभी बूढ़ा होता है।
सागर में बूड़ा होता है।।
कवि सूरज के पार विचरता,
बीज - वपन गूढ़ा होता है।
नवरस में आनंदित है कवि,
किंतु नहीं ऊढ़ा होता है।
आम आदमी - सा ही तन है,
कवि का उर चूड़ा होता है।
जान न पाते दुनिया वाले,
काव्य जिन्हें कूड़ा होता है।
बाहर भीतर तह तक जाए,
कवि न केश - जूड़ा होता है।
'शुभम' विराजें मातु शारदा,
वाणी का मूढ़ा होता है।
ऊढ़ा = परकीया वत।
चूड़ा =शिखर।
मूढ़ा = आसन।
🪴 शुभमस्तु !
१३.०७.२०२१◆३.१५ पतनम मार्तण्डस्य।
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